अखिल ‘ज्ञ’ ।।
मैं अनगढ़, अनपढ़, अनमना
महज़ और महज़
सुनना और देखना चाहता हूँ
पर उस से पहले
मैं, दौड़ जाना चाहता हूँ
कहीं दूर
बशर की बस्ती छोड़ कर
दूर कहीं जहाँ हवाओं में
इब्न-ए-इंसाँ की बू न हो
मैं नोंच फेंकना चाहता हूँ
पैरहन, जिस्म की पैरहन
उर्यां रूह वाँ उर्यां मैं
सिर्फ़ और सिर्फ़ मैं
कोई और नहीं, हाँ
तेरा ख़ुदा भी नहीं
और फिर, मैं…
सुनूँगा, एक वक्त में एक ही आवाज़
देखूँगा, एक वक्त में एक ही किरदार
चखूँगा, मैं किसी नज़्म का नमक
पिऊँगा, एक कविता का रेगज़ार
और जब…
मैं सुन चुका होऊँगा सारी आवाज़ें
मैं देख चुका होऊँगा सारे किरदार
चख लिए जाएंगे नमक सभी
पी चुका होऊँगा पूरा रेगज़ार
किसी नियत वक्त पर
एक नियत स्थान पर
दफ़्न होने की ख़ातिर
मैं ओढ़ लूँगा बालिश्त भर ज़मीं..!
*बशर – Man
*उर्यां – nude
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