काव्य कौमुदी नज़्म

‘यह तय हुआ था’

फोटो: डा. सांत्वना श्रीकांत

सबीहा सदफ़ II

हज़ार आंधी हज़ार तूफ़ां
हज़ार गर्दिश में जाम आए
ज़माना कितनें खिलाफ जाए
हर एक वादी हर एक गुलशन
में आ के हम-तुम मिला करेंगे
यह तय हुआ था।

उदास मौसम सुलगती शामें
उदास मंज़र दहकती यादें
खिज़ां रूतों को बहार करने
को फूल बन कर खिला करेंगे।
यह तय हुआ था।

वफ़ा के किस्सों वफ़ा की बातों
वो रस्मे-उल.फत की दास्तानों
में नाम अपना लिखा करेंगे
यह तय हुआ था।

गर हुआ क्या
यह सारे मंज़र बदल गए क्यूँ
यह ख़्वाब सारे बिखर गए क्यूँ
मुहब्बतों के कलाम सारे
गुलाब रंगों के रंग सारे
बहार मौसम के सब नज़ारे
वो चाँद रातों की ताबनाकी।

शफ़क़ की सुरखी उफ़क़ की लाली
धनक की सारी ही रंगतों के
वो रंग सारे उतर गए क्यूँ
कभी यह सोचा है तुमने जानां
तुम्हारे मेरे जो दरमियां हैं।
वो फ़ासले अब ठहर गए क्यूँ ।

नोट: साभार ‘वक्त की आवाज़’ काव्य-संग्रह से

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Ashrut Purva

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