काव्य कौमुदी ग़ज़ल/हज़ल

मक़सूद शाह की तीन हज़लें

फोटो: डा. सांत्वना श्रीकांत

मक़सूद शाह II

रेख़्ता के अनुसार ‘हज़ल’ का अर्थ है- व्यंगात्मक काव्य, हास्य ग़ज़ल

हज़ल – 1

तो अब यक़ीनन मेरा इंतकाल है बेटा
ये तो सरकारी अस्पताल है बेटा

नानी के यहाँ तेरी, अदब से पेश आना
देखो वो तेरे बाप का ससुराल है बेटा

सच्चाई तेरी कौन खरीदेगा बाज़ार में
मंडी में तो झूठ की उछाल है बेटा

नज़र तो रुस्तम भी नहीं मिलाता मुझसे
यह तो तेरी अम्मा की मजाल है बेटा

मरीज होते हैं अक्सर आईसीयू में
यहाँ तो आईसीयू में अस्पताल है बेटा

आज लूट ला लंगर बिरयानी कहीं से
घर पर तो वही पानी वाली दाल है बेटा

फखों में भी मुस्कुराया कर बाज़ार में
यह तेरे बाप की इज्जत का सवाल है बेटा

बड़ी तान लग रही है शायरी में ‘शाह’
ये बता कि तू शायर है कि कव्वाल है बेटा

हज़ल – 2

जिसको हर इक ने टाल रक्खा है.
तूने क्यों उसको पाल रक्खा है

उसका खाक़ी न कुछ बिगाड़ेगी
जेब में जिसके माल रक्खा है

हैं वो अंगूर या किशमिश क्या पता
उसने घूँघट निकाल रक्खा है

इक मदारी ने सारी जनता को
कितनी हैरत में डाल रक्खा है।

‘शाह जी’ हमने अपनी हज़लो में
शेर हर इक कमाल रक्खा है

हज़ल – 3

बड़ा ही बुरा वक्त हमने गुजारा हैं
सलवार पहन के धोती को उतारा है।

जब भी दुश्मन ने हमको ललकारा है
यूँ लगा बेगम तुमने पुकारा है।

यूँ ही नहीं आ गई बिरयानी में बोटियाँ
गरम देग में खुद को उतारा है

लंबी-लंबी छोड़ ना बंद कीजिए ‘शाह’ जी
ससुराल के टुकड़ों पर अपना गुज़ारा है

नोट: साभार ‘वक्त की आवाज़’ काव्य-संग्रह से

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