कविता काव्य कौमुदी

पाश

फोटो- गूगल साभार

उर्वशी भट्ट II

आसक्ति के पाश की जकड़
इतनी घातक होती है, कि
देह चूक जाती है सारा सामर्थ्य
चेहरा ज़र्द पीला पड़ जाता है
पर, पाश की पकड़
कमज़ोर नहीं पड़ती

अंधड़ की तरह सर पटकता है
जीवन का सारा बोध
क्लान्त हृदय के विवर से
एक चीत्कार गूँजती है
जिसकी ध्वनि से
पूरा आकाश दहल जाता है
ज़मीन भीग जाती है
नव कोपलें झूलस जाती हैं
पर नहीं चटकती हैं वांछायें
नहीं पसीजता है
जीवन की सीमांत रेखा पर
पसरा शून्य

फिर सब सूख जाता है
जिसकी कल्पना की जा सकती थी
गीली माटी , हरी नदी,
आँख का पानी
तब मैंने जाना
संसार में जहाँ भी वेदना थी
उसके स्तब्ध होकर
मूक हो जाने का रहस्य !

जीवन जैसे
पाँव के नीचे चिपटी
काई से सनी चट्टान पर टिक गया
जहाँ शेष थी तो सिर्फ
फिसलन…!

About the author

डॉ उर्वशी भट्ट

जन्म स्थान - डूंगरपुर राजस्थान
कार्य- स्वतंत्र लेखन व अध्यापन
प्रथम काव्य संग्रह - "प्रत्यंचा" ( साहित्य अकादमी के सहयोग से प्रकाशित)

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