कुलदीप सिंह भाटी II
पुस्तक का नाम – उजास के अर्थ
कवि – श्री दशरथ कुमार सोलंकी
प्रकाशक – कलमकार मंच, जयपुर
मूल्य – रुपए 150/-
कवि श्री दशरथ कुमार सोलंकी का सद्य: प्रकाशित काव्य-संग्रह ‘उजास के अर्थ’ जीवन में उजास के लिए प्रकृति के अर्थ का बोध कराता संवेदनाओं से संपूरित काव्य-संग्रह है । प्रेम और प्रकृति के ताने-बाने से गुम्फित इन कविताओं में कवि ने प्रकृति और उसके तत्वों से सीधा संवाद स्थापित करते हुए अपनी बात कही है । कवि,उर के उजास की प्रेरणा भी प्रकृति में विद्यमान उजास को मानते हैं, इसलिए कवि बेझिझक सृष्टि में निहित सौंदर्य और स्नेह के तत्वों को ही अपनी कविताएँ समर्पित करते हैं । कवि ने अपने आत्मकथन में लिखा है कि, उजास एक बहुआयामी और अनेकार्थी शब्द है। स्वयं कवि के शब्दों में – “कोई क्षण आपके मस्तिष्क को उद्वेलित कर हृदय को आलोक से भर दे, या कोई वस्तु या भाव आपकी दृष्टि को सृष्टि से पार किसी सुख के लोक में ले जाए, ये सब उजास के हेतुक….. अर्थ हैं ।
इस संग्रह की कविताओं को पढ़ने से पूर्व इंसान को अपने कपड़ों में छुपी कपटता और क्रूरता को त्याग कर मन की मुदिता और तन की तन्मयता के साथ पूर्ण आत्मीय और अपनत्व भाव से कविताओं के साथ एकाकार होना होगा । बिना मनुष्य बने कोई कविता अन्तस् में नहीं उतरती है, इसलिए कवि अपनी रचना ‘पढ़ो कुछ इस तरह’ में लिखते हैं –
“यदि इच्छा हो कभी
मेरी कविता को पढ़ने की
मनुष्य बन जाना कुछ पल
क्योंकि यह सिर्फ़ एक कविता भर नहीं
मनुष्यता का माप है
मंत्रों का जाप है
ज़िंदगी की टूटन पर
संवेदना की थाप है ….”
‘प्रेम, पुकार की अपेक्षा मौन की गहराई में बसता है’ , के द्वारा यह समझा जाना चाहिए कि मुखरता प्रेमियों की मूर्खता है। कहा जा सकता है कि कवि को प्रेम में अमुखरता कहीं अखरती नहीं है और यही मंतव्य अपनी कविता “प्रेम का श्रेष्ठ रूप” में बताते हुए कवि अपनी प्रेयसी को लिखते हैं कि –
”मौन की गहराई में बसता, प्रेम का श्रेष्ठ स्वरूप
इसलिए मैंने भी तो, तुम्हें नहीं बुलाया कभी….!!”
कवि प्रकृति को अपने भीतर स्पंदित और अनुभूत करता है और अन्तस् में उद्भूत यह स्फुरण ही प्रकृति-प्रेम के साथ कवि को वैयक्तिक -प्रेम की ओर प्रवृत्त करता है। इंसानों को एक-दूजे से प्रेम करने से पूर्व प्रकृति से प्रेम करना सीखना होगा । प्रकृति ही प्रेम को समझाने का गुरुतर दायित्व भली प्रकार से निर्वहित कर सकती है । ‘पेड़ और प्रेम’, प्रेम-अर्चन’, ‘प्रेम के नवनिकेत’, ‘ पुराकाल के प्रेमी’, ‘चिड़िया और प्रेम’, ‘पृथ्वी का प्रेमांश’ आदि कविताएँ मेरे उपर्युक्त कथन का पूर्ण समर्थन करती हैं ।
कवि प्रेम और प्रकृति के साथ अन्य मानवीय संबंधों की बहुगुणिता का मान और भान रखते हुए इन्हें तनिक भी गौण नहीं मानते हैं । कवि प्रेम के भावोद्रेक प्रवाह में बहते हुए अपने विचारों के उत्तुंग शिखर का जुड़ाव और मुड़ाव ‘जड़ों की ओर’ ही रखते हैं । इन सबके बावजूद कवि की कविताओं में गाँव, गवाड़ी, माँ, माटी, भातृ, भगिनी, आक, खैर, खेत, खेजड़ी को वजूद हेतु संघर्ष नहीं करना पड़ा । ये सब सहज भाव और समान रूप से कविताओं की ज़ाज़म पर स्वभावतः अपनी सुखद उपस्थिति दर्ज़ करवाते हैं । ‘माँ बेटी और माटी’, ‘स्त्री के हाथ’, ‘धरती और स्त्री’ , ‘पंचतत्वों में माँ’, ‘ चंद्र जैसा सहोदर’ , ‘गवाड़ी का नीम’, ‘ थडकले के देवता’ , ‘धरती और माँ’, ‘ओ देवदार ‘ आदि कविताएँ कवि के इन्हीं मनोभावों की प्रतिनिधि कविताएँ हैं ।
कवि प्रकृति, प्रेम और मानवीय अंत:संबंधों के साथ ही अपनी जीवन-नैया को विचारों के उफान से उठे तूफान और ज़िंदगी के झंझटों रूपी झंझावातों से जूझते हुए अध्यात्म और दर्शन की पतवार के साथ अपनी काव्य-नैया को खेने का मनोयोग से पूर्ण सफल और सार्थक प्रयास करते हैं । ‘भगवान से शिकायत’, ‘आग और प्रार्थना’, ‘दुःख’, ‘कंकर में शंकर’ आदि कविताओं में अध्यात्म के साथ व्यवहारिक जीवन के उन्नयन हेतु एक नई दीठ मिलती है ।
कवि अपनी लेखनी और भावों के उकेरण में बिना कोई लाग-लपेट के खरी बात कहने में कुशल हैं । उनकी यही साफ़गोई, सरलता और निष्पक्षता उनकी कविता ‘देवदायित्व’ में मुखरित होती है, जब कवि मानव कल्याण और हित के लिए देवताओं को भी उनकी असफलता पर जैसे कठघरे में खड़ा कर देते हैं और कवि के तीक्ष्ण शूलों से निश्चिंत ही विधाता भी बिंधता हुआ सोचने को विवश हो जाता होगा । कवि अपने आस-पास जब विद्रूपताओं के जाल, कसमसाती सृष्टि और विपदाग्रस्त प्रकृति और प्राणियों के बावजूद प्रासादों में प्रमुदित प्रतिमाओं को देखता है तो आक्षेप भाव से लिखते हैं कि –
‘यह तो ज़्यादती है मानव सहित समस्त प्राणियों पर
तीनों लोकों में किसी का माथा नहीं ठनका आज तक
विधाता की इस असंतुलता पर
क्यों नहीं उठे सवाल आज तक….’
इतना ही नहीं कवि वर्तमान माहौल से इतने आहत हो जाते हैं कि वह तीनों लोक में देव-दायित्वों के पुनर्निर्धारण तक की अर्ज़ी विधाता के समक्ष निर्णय हेतु प्रस्तुत कर देते हैं ।
अस्त्र, शस्त्र और प्रक्षेपास्त्र की होड़ में कवि आज भी कलम और कविता की ताकत को सबसे ज्यादा प्रबल मानता है और वर्तमान में विश्व में व्याप्त युद्ध की विभीषिका के समय दूरदर्शी कवि अपने पाठकों को आश्वस्त करते हुए कविता ‘कलम और कविता’ में लिखते हैं कि –
‘विनाश पर आमादा
विज्ञान, बुद्धि और राजनीति का
जवाब होगी कलम
प्रतिकार होगी कविता’
एक संवेदनशील कवि की इन तिरपन कविताओं का यह बेजोड़ संगम नि:संदेह पठनीय और संग्रहणीय होने के साथ विद्रूपताओं और विपदाओं की घड़ी में ग्रहणीय विषय-वस्तु से युक्त है । बेहतर आवरण-सज्जा और व्याकरणिक अशुद्धियों से मुक्त, उत्कृष्ट छपाई वाला तथा गुणवत्तापूर्ण कागज वाला यह संग्रह पाठकों को सहज आकृष्ट करेगा, ऐसा मुझे विश्वास है । शांत, सौम्य, शुचितापूर्ण जीवन अर्थों को समझाने के अपने मन्तव्य में ‘उजास के अर्थ’ नामक यह कृति पूर्णत: सफल है ।
उमंगों की उत्फुल्लता और भावों की प्रवणता में जहाँ पर्याप्त रूप से बिंबों के साथ न्याय किया गया है, वहीं अनुप्रास जैसे अलंकारों से इसका लालित्य और अभिवृद्ध होता है । शब्दों की क्लिष्टता से परे यहाँ कविताओं में “आंटे, भरूट, माले, बूरना, रळकाऊंगा, आकडे, बायरिया, बळबळती, लैरके, टिकड़ी, कार, परघर, मैलणौ, आरोगते, गवाड़ी, खलेची, रमकड़े, आम्बली, ओटले” जैसे देशज और स्थानीय बोली के शब्द-प्रयोग मायड़-भौम और मायड़-भाषा सौंधी सौरभ से पाठकों के अंतस् को सुरभित करते हैं । साथ ही एक सुझाव है कि यदि इन देशज और स्थानीय शब्दों के अर्थ,फुटनोट के रूप में उद्धृत करते तो गैर-राजस्थानी पाठकों को समझने में और सहूलियत होती । आशा है, आगामी संग्रह में आप इस पर विचार करेंगे ।
बैंक नराकास, जोधपुर से मीरा सम्मान (काव्य) से सम्मानित कवि श्री दशरथ कुमार सोलंकी के पूर्व के दो काव्य संग्रहों ‘अनुभूति’ और ‘कि आदमी का मरे नहीं पानी…’ की तरह पाठकों को पठन का माधुर्य रसास्वादन करवाने में पुन: सफल होने पर अशेष शुभकामनाएँ और बधाई । आशा करता हूँ कि सृजन का यह पथ सदैव आलोकित रहे और हिन्दी साहित्य की समृद्धता में आपका अवदान बना रहे ।