काव्य कौमुदी ग़ज़ल/हज़ल

बोलो किसकी जीत मैं लिख दूं, बोलो किसकी मात लिखूं

मनस्वी अपर्णा II

आज मिला है मौका तो फिर लाजिÞम है जज्बात लिखूं
बोलो तो झूठा सच लिख दूं या फिर अपनी बात लिखूं
//१//

तुमको तो मालूम है सब कुछ, पर्दा तुमसे कोई नहीं
और बताओ इससे बढ़ कर क्या अपने हालात लिखूं
//२//

अपनी-अपनी बाजी तो हम दोनों हार चुके हैं फिर
बोलो किसकी जीत मैं लिख दूं, बोलो किसकी मात लिखूं
//३//

क्या हूं मैं लिखना है मुझको मुश्किल में हूं क्या लिक्खूं
अपने जिस्म का नक्शा लिक्खूं या फिर अपनी जात लिखूं
//४//

आसेब मुसलसल जारी है ये दौर नहीं रुकने वाला
कितनी बार मुसीबत लिक्खूं औ कितने सदमात लिखूं
//५//

भर जाता है बौनेपन का इक अहसास कहीं मुझमें
इस कुदरत के आगे अब, मैं क्या अपनी औकात लिखूं
//६//

सुख-दुख दोनों ही दिखते हैं, तो उलझी हूं उलझन में
तुमसे जो पाया है उसको सजा लिखूं, सौगात लिखूं
//७//

About the author

मनस्वी अपर्णा

मनस्वी अपर्णा ने हिंदी गजल लेखन में हाल के बरसों में अपनी एक खास पहचान बनाई है। वे अपनी रचनाओं से गंभीर बातें भी बड़ी सहजता से कह देती हैं। उनकी शायरी में रूमानियत चांदनी की तरह मन के दरीचे पर उतर आती है। चांद की रोशनी में नहाई उनकी ग़ज़लें नीली स्याही में डुबकी ल्गाती है और कलम का मुंह चूम लेती हैं। वे क्या खूब लिखती हैं-
जैसे कि गुमशुदा मेरा आराम हो गया
ये जिस्म हाय दर्द का गोदाम हो गया..

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