राधिका त्रिपाठी II
औरतें घर में, पार्टी में, दोस्ती में, प्यार में हर जगह जरूरत होती हैं। लेकिन जब वे निकलने लगती हैं दौड़ में आगे, राजनीति में आगे या फिर घर की मुखिया बनती हैं, तो सभी की आंखों की किरकिरी बन जाती हैं। जरा सी हंसती-मुस्कुरातीं, गुनगुनातीं औरतें, पर-पुरुष से बात करतीं औरतें चुभने लगती हैं आंखों में। किसी मंच पर भाषण देतीं राजनीति से जुड़ी औरतों पर लोग आसानी से कटाक्ष करने लगते हैं। और ये लोग यह भी कहते हैं कि वहां तक ऐसे ही थोड़ी पहुंची होगी।
तो ये लोग चरित्रहीनता की चादर इतनी लंबी कर देते हैं कि स्त्री उसमें डूब जाए। उसका अस्तित्व बिखर जाए। और लोग नयन सुख लेते हुए कहते रहेंगे कि ऐसी नहीं होती तो यह नही हुआ होता। मुझे समझ नहीं आया आज तक कि कैसी औरतें सभ्य होती हैं? जो दहलीज के बाहर कदम नहीं रखती या फिर जो ऊंची आवाज में कभी किसी से बात नहीं करतीं, जवाब नहीं देती। जो गाय की तरह जिस खूंटे से बांध दी गई, उसी की परिक्रमा में संपूर्ण जीवन गुजार दिया, क्या वही सभ्य है? और कोई नहीं। उनका क्या जो घर बाहर दोनों संभाल रही हैं।
हंसती-बोलती मजाक करतीं औरतें सदा ही हाशिए पर रही हैं इस समाज में। समाज ने यहां तक कि परिवार ने भी स्त्री को सदा ही दया का पात्र समझा। अगर पति से ज्यादा पढ़ लिख गई तो उसे घमंडी और अगर कम पढ़ी-लिखी, तो उसे गंवार तक कह दिया जाता है। अगर शारीरिक सुख की लालसा जता दी तो पति की नजरों में चरित्रहीन। समाज के लिए बेहया। यही चीज पुरुष चाहे तो कोई बात नहीं। आखिर बराबरी कहां है? किताबों में? कहानियों में, फिल्मों में? ये सच औरतें भी स्वीकारतीं नहीं कि उनका उत्पीड़न हो रहा है। उन्हें उनकी मांएं भी सदा यही सिखाती हैं कि आदमी है, जाने दो दो चार बातें बोल दिया तो क्या हुआ? एक थप्पड़ मार दिया तो क्या हुआ।
आम तौर पर महिलाएं कभी पलट कर जवाब नहीं देतीं। मगर पति का या मित्र का हाथ एक बार खुल गया तो फिर खुल ही जाता है। श्रद्धा वालकर को ही लीजिए। पुरुष मित्र उसका उत्पीड़न करता रहा, मगर इस सच को मरने तक वह स्वीकार नहीं कर पाई। कई स्त्रियों का यही सच है।
कितनी औरतें रोज पीटी जाती हैं। मगर महिलाएं हैं कि कभी पलट कर जवाब नहीं देतीं। और पति का या मित्र का हाथ एक बार जो खुल गया तो फिर खुल ही जाता है। मुंबई की श्रद्धा वालकर को ही लीजिए, दिल्ली में पुरुष मित्र उसका उत्पीड़न करता रहा, पीटता रहा मगर इस सच को मरने तक वह स्वीकार नहीं कर पाई। कई स्त्रियों का यही सच है। क्या पीड़ित महिलाओं को जवाब नहीं देना चाहिए। क्या ऐसे पुरुषों का बहिष्कार नहीं होना चाहिए। महिलाएं ही आत्मनिर्वासन में क्यों जाएं। पुरुष भी क्यों न निर्वासित हों।
क्या आज के दौर में यह सब लिखने या समझाने की क्यों जरूरत पड़ती? आज भी ग्रामीण ही नहीं शहरी स्त्रियों पर भी ज्यादती होती है। श्रद्धा कांड हमारे सामने उदाहरण है। वह पढ़ी-लिखी और आत्मनिर्भर होकर भी पुरुष मित्र की ज्यादती क्यों सहती रही। स्त्रियों से ये कोई क्यों नहीं कहता कि अगर सामने वाले का एक हाथ मारने के लिए उठे तो तुम दूसरे हाथ से आत्मरक्षा करो। जो पाओ उसे ही हथियार बना लो, मगर मार मत खाओ। गाली मत सुनो। जानवर भी तुमसे अच्छे हैं जो पलट कर सींग से वार करते हैं।
तो स्त्रियों… कम से कम अपने हक के लिए तो लड़ो। और जरूर लड़ो। कोई साथ नहीं तो अकेली ही भिड़ जाओ। बिना लड़े ही गुलामी स्वीकार मत करो। नहीं तो एक दिन घर के ही लोग रोटी की जगह तुम्हें सानी डालना शुरू करेंगे। फिर क्या करोगी? फैसला तुम्हारे हाथ में है।