अश्रुतपूर्वा II
नई दिल्ली। बंगाल से फिर दुखद खबर। विख्यात बांग्ला लेखक समरेश मजूमदार नहीं रहे। साहित्य अकादेमी पुरस्कार विजेता साहित्यकार मजूमदार का कोलकाता के एक निजी अस्पताल में पिछले दिनों निधन हो गया। उन्हें सत्तर के दशक के अशांत नक्सलवादी काल को चित्रित करने के लिए जाना जाता है। मजूमदार 79 साल के थे। उन्होंने अपने लेखन से बांग्ला साहित्य को समृद्ध किया।
अस्पताल के एक अधिकारी ने बताया, वे करीब बारह साल से क्रॉनिक आॅब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज से पीड़ित थे। हाल में उनके स्वास्थ्य में गिरावट आई और उन्हें जीवनरक्षक यंत्र पर रखा गया। आठ अप्रैल की शाम उन्होंने अंतिम सांस ली। अपनी ‘उत्तराधिकार’, ‘कालबेला’ और ‘कालपुरुष’ जैसी राजनीति पर आधारित बेहद चर्चित किताबों के अलावा उन्होंने लघु कथाएं और यात्रा वृत्तांत भी लिखे। उन्हें नक्सली आंदोलन की पृष्ठभूमि पर लिखी गई ‘कालबेला’ के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला था।
मजूमदार का जासूसी चरित्र अर्जुन भी काफी लोकप्रिय हुआ था। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि यह साहित्य जगत के लिए अपूरणीय क्षति है। फिल्म निर्देशक गौतम घोष ने कहा कि मजूमदार ही वह व्यक्ति थे जो उत्तर बंगाल में 1970 के दशक के अशांत दौर को किताब के जरिए सामने लेकर आए। मजूमदार ने अपना अधिकतर बचपन उत्तर बंगाल के चाय बागानों में बिताया था और इस अनुभव ने उनके लेखन में एक अमिट छाप छोड़ी। पश्चिम बंगाल में 1960 और 1970 के दशक में नक्सली आंदोलन की आहट राज्य के चाय बागानों में शुरू हुई थी।
नक्सली आंदोलन की पृष्ठभूमि पर लिखी गई ‘कालबेला’ के लिए समरेश मजूमदार को साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला था। वे उत्तर बंगाल में 1970 के दशक के अशांत दौर को किताब के जरिए सामने लेकर आए। मजूमदार ने अपना अधिकतर बचपन उत्तर बंगाल के चाय बागानों में बिताया था और इस अनुभव ने उनके लेखन में एक अमिट छाप छोड़ी।