अमनदीप गुजराल ‘विम्मी’ II
गुस्से से छोड़ आई थी घर
चार बच्चों की मां, मारपीट, गाली-गलौज से तंग आकर
आज भी जार जार रोती है बच्चों को याद कर
कहती है कोई मथ रहा है मन को बिलौने की तरह…
छह बच्चों की एक मां को याद आ गए हैं
अपने बच्चों के नाम, गांव का नाम स्मृति में नहीं अब भी
पुकारती है बच्चों को कभी न खत्म होने वाले सपने में
भटकती है दर-बदर जंग लगी कुंडियां खटखटाते
पहचाने चेहरों की तलाश में…
भीड़ में भाई से बिछड़ी एक लड़की
सोचती है अनाथ हो गया होगा बबलू
अब यादों से बेदखल होता जाता है वह चेहरा
बदल गया होगा चाल चलन चेहरा मोहरा
पर, औचक ही हाथ छुड़ा भागता हुआ नजर आता है…
पांच साल की लंबी बीमारी के बाद
ठीक हो गई है झुमरी
दिन, महीने, साल कोई गिनती याद नहीं
याद है तो बस वह आंगन बाड़ा
पीपल का बूढ़ा पेड़, खुरदुरी चारपाई, कसैला धुआं
पांच साल पहले का निष्कासन…
झरना बीस साल से इंतजार कर रही है घरवालों का
पुरी में छोड़ कर चला गया था वो भांजा
जिसे अपने बच्चे सा पाला था
रिश्तों की असलियत पर रोती वह
कोसती जाती है भगवान को…
ससुराल वाले इसे सीता बुलाते थे
शरमा जाती है पति का नाम लेते
हाथों से कुछ इशारे करती है,
रो पड़ती है बुक्का फाड़ कर
गिनाती है वह सब जो उसने नहीं किया
पूछती है, क्या बांझ होना उसकी गलती थी…?
अनगिनत किरदार, अनगिनत कहानियां
जितना करीब जाती जाती हूं
सब कुछ गडमड्ड होता जाता है …
हर कहानी समाज के चहरे की एक और परत उतार देती है
वह परत जो ताल ठोक कर कहती है सब ठीक है…।