संजय स्वतंत्र II
कभी-कभी लगता है कि
सेल्फ में बरसों से
धूल खाई किताब जैसा
हो गया हूं मैं।
मैंने बरसों से खुद को
कभी पढ़ा ही नहीं।
हो गया हूं अब
अखबार के पन्ने जैसा भी
जो गुजरते रहे
मेरी आंखों से होकर और
छापेखाने से निकलते रहे
आपके लिए खबरें लेकर।
हजारों शब्द हैं मेरे पास
प्रेम रचने के लिए
फिर भी मुझे
किसी ने पढ़ा ही नहीं।
धूल खाई किताबों से
बहती हैं नदियां
कई प्रेम कहानियां लेकर,
इन किताबों से उमड़ता है
एक नीला समंदर
गुलाबी चिट्ठियां लेकर
कौन पढ़ेगा इन्हें?
लड़ते-झगड़ते युगलों से
मैंने कभी पूछा ही नहीं।
धूल खाई किताबों से
झड़ते हैं हरे-भरे पेड़
जो कट गए लेखकों की
पुस्तकों के लिए किसी दिन,
उन पेड़ों के नीचे
अब कोई नहीं बैठता,
किसी को फुर्सत भी तो नहीं।
नफरत के इस दौर में
कोई तपाक से गले लगाता नहीं
गलाकाट प्रतियोगिता का
अब दौड़ है साहब,
दिल से कोई अब
हाथ मिलाता नहीं,
सचमुच कोई गले लगाता नहीं।