अश्रुत तत्क्षण

हम सब का दिल भी उतरा चांद पर

संजय स्वतंत्र II

भारत के चंद्रयान 3 के लैंडर मॉड्यूल ने चांद की सतह को छूकर इतिहास रच दिया है। उसने उस चांद को छुआ जहां कवियों और प्रेमियों का दिल सदियों से अटका है। जिसका वाल्मीकि से लेकर तुलसी और सूरदास तक ने अपनी रचनाओं में चित्रण किया है। जिसे कवि और लेखक अपनी रचनाओं में अकसर उतार लाए हैं। बहना याद करती है तो उसका संदेश चांद ही भाई के पास लेकर जाता है। प्रेमी युगल आंसू बहाते हुए चांद से पूछते हैं बताओ न तुम रात भर क्यों जागते रहते हो हमारी तरह? हमारी-तुम्हारी नींदिया किसने चुराई है? दूसरी ओर चांद बच्चों का मामा भी है। दूर बैठे वे बच्चों के लिए गुड़ के पुए भी बनाते हैं। सचमुच कितना प्यारा है चांद। मोहबब्त की सौगात देने खिड़की से भी झांकता है चांद।  
एक अनार सौ बीमार वाली कहावत सिद्ध होती है चांद पर। ताकतवर देशों की ही नही, धरती के मनुष्यों की निगाहें भी उस पर लगी रहती हैं। वह उसे देख कर जब-तब भावुक हो उठता है। धरती से चार लाख किलोमीटर से भी दूर चांद पर सब उतर जाना चाहते हैं। चांद इस ब्रह्मांड का छोटा सा ग्रह, मगर है दिलचस्प। वहां साढ़े चौदह दिन रात और और इतने ही दिन वहां उजियारा रहता है। दिन में गर्मी ऐसी कि इंसान स्पेस सूट न पहने तो 30 सेकंड में झूलस कर मर जाए। रात में ठंड इतनी कि आप सह ही न पाएं। धरती से कितना अलग है चांद। फिर भी इंसान वहां अपनी बस्तियां बसाने के ख्वाब देख रहा है।
आज बेशक हमने इसे छू लिया हो, मगर अपनी कल्पना में हमने बार-बार इसे छुआ है। कभी हमने चांद को अपना दिल बना लिया, तो कभी अपनी प्रिया को चांदनी बता कर संतोष करते रहे हैं। चांद का विश्व साहित्य से भी गहरा नाता है। चांद हिंदी और अंग्रेजी साहित्य में भी उतरा है। भारतीय परंपरा से लेकर लोक-कला, पुरातत्त्व और ज्योतिष तक में इसका वर्णन मिलता है। हमारे पंचाग में चंद्रमा की गतिविधियों के आधार पर राशिफल निकाला जाता है। अमावस्या के दिन हम कोई शुभ कार्य नहीं करते। मगर पूर्णिमा का चांद सबके मन को हर्षित कर देता है। तमाम धर्मो में भी इसका उल्लेख है। उसी अनुसार पर्व-त्योहार मनाते हैं।
चांद को तो हमने बरसों पहले दिल के कोने में बसा लिया था। हम में से करोड़ों लोग चांद पर जाएं या न जाएं पर अपनी कल्पना में चांद पर घर बना चुके हैं। मगर आज इस यथार्थ से इनकार नहीं किया जा सकता कि हम चांद पर उतर चुके हैं। हमने इसे  छू लिया है। यह हर भारतीय के लिए गर्व की घड़ी है। अब आप मत कहिएगा कि चांद चुरा के लाया हूं …। चांद अब आपकी मुट्ठी में है।

About the author

संजय स्वतंत्र

बिहार के बाढ़ जिले में जन्मे और बालपन से दिल्ली में पले-बढ़े संजय स्वतंत्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई की है। स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद एमफिल को अधबीच में छोड़ वे इंडियन एक्सप्रेस समूह में शामिल हुए। समूह के प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक जनसत्ता में प्रशिक्षु के तौर पर नौकरी शुरू की। करीब तीन दशक से हिंदी पत्रकारिता करते हुए हुए उन्होंने मीडिया को बाजार बनते और देश तथा दिल्ली की राजनीति एवं समाज को बदलते हुए देखा है। खबरों से सरोकार रखने वाले संजय अपने लेखन में सामाजिक संवेदना को बचाने और स्त्री चेतना को स्वर देने के लिए जाने जाते हैं। उनकी चर्चित द लास्ट कोच शृंखला जिंदगी का कैनवास हैं। इसके माध्यम से वे न केवल आम आदमी की जिंदगी को टटोलते हैं बल्कि मानवीय संबंधों में आ रहे बदलावों को अपनी कहानियों में बखूबी प्रस्तुत करते हैं। संजय की रचनाएं देश के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

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