भारतीय राजनीति ने हिंदी के कुशल वक्ता तो दिए, मगर वह सभी को इस बात के लिए राजी नहीं कर पाई कि प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च स्तर की पढ़ाई क्षेत्रीय भाषाओं और हिंदी में हो। इस वर्ष मध्य प्रदेश में चिकित्सा की पढ़ाई हिंदी में भी कराने के लिए मध्य प्रदेश में पहल हुई थी। वह कितनी परवान चढ़ी, फिलहाल किसी को मालूम नहीं है। कोई दो राय नहीं कि विज्ञान और तकनीक की शिक्षा जब तक बच्चों की अपनी भाषा में नहीं दी जाएगी, तब तक हिंदी और क्षेत्रीय भाषाएं मजबूत नहीं होंगी।
पिछले कुछ सालों में हिंदी सत्ता की भाषा बनती दिखाई दी है। दुनिया भर में देश के शीर्ष नेता हिंदी में बोलते दिखे। यह सुखद है। दुनिया अब हिंदी को भी सुन रही है। मगर इससे कहीं अधिक सुखद यह होता जब हिंदी भारत में रोजगार की भाषा बनती। यानी फिर अपनी भाषा में पढ़ाई पूरी करने वाले युवाओं को रोजगार मिलता। तभी हिंदी और क्षेत्रीय भाषा का मान बढ़ता और हम सबका स्वाभिमान भी।
आज बाजार की भाषा बन कर हिंदी निसंदेह अपनी पताका फहरा रही है। इससे हम खुश हो सकते हैं। मगर तस्वीर का यह भी पहलू है कि कारोबार और प्रबंधन की भाषा आज भी अंग्रेजी है। कभी चीन, फ्रांस और जर्मनी से लेकर रूस, जापान और कोरिया (उत्तर और दक्षिण दोनों) से सीख लीजिए। उनके यहां राजकाज की ही नहीं, हर क्षेत्र में उनकी अपनी भाषा में काम होता है। वे अंग्रेजी की बैसाखी पर निर्भर नहीं हैं। आज भारत को स्वीकार करने की बात है तो भारतीय भाषाओं को भी अंगीकार कीजिए। तभी बात बनेगी। क्योंकि मातृभाषा की उन्नति के बिना समाज और देश की प्रगति संभव नहीं है। तभी तो भारतेंदु जी ने कहा था-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटन न हिय के शूल।

सांत्वना श्रीकांत
संस्थापक, अश्रुत पूर्वा