आलेख कथा आयाम

हिंदी उपन्यासों में फिर लौट रहे हैं जासूस  

संजय स्वतंत्र II

भारत में जासूसी लेखन की सुदीर्घ परंपरा है। हमारे यहां तिलिस्मी लेखक बाबू देवकी नंदन खत्री थे जिनके उपन्यासों को पढ़ने के लिए लोगों ने हिंदी सीखी। यह हिंदी साहित्य जगत के लिए बड़ी बात थी। हिंदी के प्रति उनके इस अवदान को भुलाया नहीं सकता है। उनके लिखे उपन्यास ‘चंद्रकाता’ ने तो धूम मचा दी। इसे पढ़ने के लिए गैर हिंदीभाषियों ने हिंदी सीखी। इसकी अगली कड़ी ‘चंद्रकांता संतति’ तो पहले से अधिक दिलचस्प थी। इसी तरह उनके ‘भूतनाथ’ ने भी धमाल मचाया। हालांकि इसे पूरा करने से पहले खत्री जी का देहांत हो गया। बाद में इसे उनके बेटे ने पूरा किया। हरिकृष्ण जौहर ने भी जासूसी उपन्यासों को लोकप्रिय बनाया।  
गोपालराम गहमरी, खत्री जी के बाद ऐसे लेखक हैं जिनके जासूसी उपन्यासों को पढ़ने के लिए लोगों ने हिंदी सीखी। गहमरी जी बेहद सरल भाषा में लिखते थे। सस्ते कागज पर सरल शब्दों में लिखे उनके उपन्यास इस दौर में ‘बेस्ट सेलर’ बन गए थे। ये गहमरी जी ही थे जिन्होंने ‘ऐयार’ शब्द की जगह ‘जासूस’ का इस्तेमाल किया। हालांकि उस वक्त भी कई साहित्यकारों ने उनके उपन्यासों को लुगदी साहित्य कह कर खारिज किया। मगर उन्होंने हार नहीं मानी। वे लिखने से लेकर प्रकाशन और वितरण भी करते रहे। ‘बेकसूर को फांसी’ और ‘सरकती लाश’ उनके चर्चित उपन्यासों में शुमार है।  
जासूसी साहित्य लेखन में इब्ने सफी का जिक्र न हो, ऐसा हो नहीं सकता। इसके लिए आपको पचास के दशक की ओर लौटना होगा। इस बात का उल्लेख मिलता है कि जब 1948-49 में अब्बास हुसैनी का नकहत प्रकाशन बंद होने के कगार पर अ गया तो ये सफी साहब ही थे जिन्होंने उसमें जान फूंकी। उस दौर में सफी ने गहमरी की परंपरा को आगे बढ़ाया। उनका पहला उपन्यास ‘दिलेर मुजरिम’ 1952 में आया था। फिर उनके उपन्यासों का जो सिलसिला शुरू हुआ वह रुका नहीं। कई सालों तक उनका हर उपन्यास पिछले से ज्यादा बिका। सफी के उपन्यासों में बदी पर नेकी और अपराध पर कानून की जीत का आदर्श अवश्य रहता था।
बांग्ला साहित्य में शरदेंदु बंद्योपाध्याय का उपन्यास ‘ब्योमकेश बक्शी’ खासा चर्चित हुआ। ब्योमकेश सबसे मशाहूर पात्रों में से एक है। कहते हैं कि इस उपन्यास की रचना आर्थर कोन डायल की महान जासूसी कृति ‘शेरलॉक होम्स’ से प्रेरित है। शरदेंदु का पात्र ‘ब्योमकेश’ बांगला साहित्य का शेरलॉक होम्स है। माणिक बाबू ने ब्योमकेश बख्शी पर प्रसिद्ध  फिल्म ‘चिड़ियाखाना’ बनाई थी जिसमें अभिनेता उत्तम कुमार ने गुप्तचर की भूमिका निभाई थी। बाद में टेलीविजन पर पूरी शृंखला ही आई। सत्यजीत राय ने भी फेलुदा शृंखला के अंतर्गत कई उपन्यास लिखे।
सुरेंद्र मोहन पाठक अकेले लेखक हैं जिनके लेखन का दायरा साठ के दशक से लेकर साल 2010 के बाद तक दिखता है। एक साथ कई पीढ़ियों ने उनके जासूसी उपन्यास पढ़े। उनकी कृतियों की शुरुआत सुनील शृंखला के पहले उपन्यास ‘पुराने गुनाह नए गुनाहगार’ से हुई। इस कड़ी में लगभग 120 उपन्यास उन्होंने लिखे। सुनील नाम के एक ही किरदार पर आधारित उपन्यासों की रचना करने वाले वे पहले लेखक हैं। सुनील हमेशा बेगुनाह लोगों की मदद करने के लिए तैयार रहता है। पाठक जी ने भी अपने उपन्यासों की बिक्री में कीर्तिमान बनाया।
वेद प्रकाश कांबोज और ओम प्रकाश शर्मा को आप कैसे भूल सकते हैं। ओम प्रकाश जी को तो देवकी नंदन खत्री के बाद जासूसी कथा के अग्रणी लेखकों में से एक माना जाता है। उनके नाम 450 से अधिक हिंदी जासूसी उपन्यास हैं। इनमें ज्यादातर चर्चित रहे।
जासूसी उपन्यास पसंद करने वाले हमारे यहां लाखों पाठक हैं। यही वजह कि भारत में जेम्स बांड से लेकर शेरलॉक होम्स खासे मशहूर हुए। वहीं विक्रम चंद्रा के ‘सेक्रेड गेम्स’ को भी खूब सराहा गया। इसी कड़ी में मुकुल देव के ‘द प्रेसिडेंट इज मिसिंग’ और ‘द साइलेंट मैन’, हुसैन जैदी का ‘द डेल्ही कांसपिरेंसी’, सुजाता मेस्सी का ‘द मर्डर एट मालाबार हिल’, अंकुश सैकिया का ‘डेड मीट’ और अमिताभ घोष के ‘द कलकत्ता कोमोजोम’ को खासी सराहना मिली। मगर सिनेमा के पर्दे पर सबसे सफल जासूसी किरदार ‘007 जेम्स बांड’ ही रहा। इयान फ्लेमिंग ने इसे रचा था जो ब्रिटिश सीक्रेट एजंट था।
अस्सी के दशक में राजन इकबाल के जासूसी शृंखला वाले उपन्यास आज भी लोग याद करते हैं। लेकिन पिछले एक दशक में हिंदी में जासूसी लेखन में बड़ा ठहराव दिखता है। सुरेंद्र मोहन पाठक ने कुछ साल पहले एक साक्षात्कार में कहा था कि अंग्रेजी प्रकाशक अपने लेखक को ऊंचा उठाता है। लिहाजा चेतन भगत की किताब वे लोग भी खरीदते हैं जो उसे पढ़ते नहीं हैं। हिंदी में ऐसा नहीं है। दूसरी ओर इस विधा में बड़े साहित्यकार हाथ तो आजमाना चाहते हैं मगर किन्हीं कारणों से वे पीछे हट जाते हैं। साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल ने एक जासूसी उपन्यास लिखा था। शीर्षक था-आदमी का जहर। पर कहते हैं कि उन्होंने इस उपन्यास की खुद ही उपेक्षा की। आलोचक नामवर सिंह ने इस उपन्यास की भूमिका में ही लिखा है कि इस उपन्यास के तिरस्कार में कुछ हाथ स्वयं लेखक का भी है।
पिछले एक दशक में हिंदी में नए जासूसी उपन्यास नहीं आ रहे हैं। अलबत्ता पत्रकार और लेखक संजीव पालीवाल का रहस्य-अपराध पर आधारित उपन्यास ‘पिशाच’ जरूर चर्चा में रहा। मगर यह विशुद्ध अपराध कथा थी। इसमें एक आधुनिक स्त्री का प्रतिशोध था। वैसे इससे पहले पालीवाल उपन्यास ‘नैना’ लिख कर सुर्खियां बटोर चुके थे। विभूतिनारायण राय का उपन्यास ‘रामगढ़ में हत्या’ आप पढ़ चुके हैं। एक बात और इन्हीं बीते दस सालों में में ओटीटी मंच पर अपराध और जासूसी फिल्मों का भी दौर शुरू हुआ। मगर यहां अपराध कहानियां बढ़ती गई और जासूस गायब होता गया।  
शृंखलाबद्ध लिखे जा रहे जासूसी उपन्यासों पर गौर करें तो सिवाय सुरेंद्र मोहन पाठक के कोई और नजर नहीं आता। वे अकेले लेखक हैं जो चार दशकों से आज भी छाए हुए हैं। टीवी और इंटरनेट के जमाने में अगर जासूसी उपन्यास छप रहे हैं या पढ़े जा रहे हैं तो यह प्रकाशक की हिम्मत और लेखक का कौशल है। जासूसी कहानियों का सुनहरा दौर बेशक खत्म हो गया हो। मगर शुरुआत शून्य से ही होती है। हालिया पहल चर्चित लेखक और वरिष्ठ पत्रकार मुकेश भारद्वाज ने की है।
भारद्वाज गायब हो रहे जासूस को लेकर फिर से आए हैं। उनका मुख्य किरदार युवा जासूस ‘अभिमन्यु’ सबसे पहले उपन्यास ‘मेरे बाद’ में आया। इसी क्रम को बढ़ाते हुए उन्होंने उपन्यास ‘बेगुनाह’ की रचना की। इसमें भी अभिमन्यु है। उनका तीसरा उपन्यास ‘नक्काश’ प्रकाशनाधीन है। वहां भी यह किरदार दिखेगा। इसी शृंखला में चौथा उपन्यास भी वे लिख चुके हैं। यह सिलसिला जारी है। मुकेश भारद्वाज इस दशक के पहले लेखक हैं जिन्होंने एक किरदार पर आधारित जासूसी उपन्यासों की शृंखला शुरू कर पुराने और नए पाठकों को भी चौंका दिया है। उम्मीद है कुछ नए उपन्यासकार भी सामने आएं।

पिछले एक दशक में नए जासूसी उपन्यास नहीं आ रहे हैं। सुरेंद्र मोहन पाठक अकेले लेखक हैं जो चार दशकों से आज भी छाए हुए हैं।

About the author

संजय स्वतंत्र

बिहार के बाढ़ जिले में जन्मे और बालपन से दिल्ली में पले-बढ़े संजय स्वतंत्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई की है। स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद एमफिल को अधबीच में छोड़ वे इंडियन एक्सप्रेस समूह में शामिल हुए। समूह के प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक जनसत्ता में प्रशिक्षु के तौर पर नौकरी शुरू की। करीब तीन दशक से हिंदी पत्रकारिता करते हुए हुए उन्होंने मीडिया को बाजार बनते और देश तथा दिल्ली की राजनीति एवं समाज को बदलते हुए देखा है। खबरों से सरोकार रखने वाले संजय अपने लेखन में सामाजिक संवेदना को बचाने और स्त्री चेतना को स्वर देने के लिए जाने जाते हैं। उनकी चर्चित द लास्ट कोच शृंखला जिंदगी का कैनवास हैं। इसके माध्यम से वे न केवल आम आदमी की जिंदगी को टटोलते हैं बल्कि मानवीय संबंधों में आ रहे बदलावों को अपनी कहानियों में बखूबी प्रस्तुत करते हैं। संजय की रचनाएं देश के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

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