कविता काव्य कौमुदी

एक खत मां के नाम

संतोषी बघेल II

एक अनाम खत
लिखना चाहती हूं मैं
अपनी मां के नाम,
ढेरों शिकायतें, ढेरों नाराजगी के साथ।
मां ने क्यों नवाजी ये जिंदगी,
पूछना चाहती हूं उससे,
क्यों दी ये घुटी हुई सांसें,
दोगले समाज में पल-पल सिसकने के लिए?
क्यों दिया यह असुरक्षित बचपन,
जहां पल-पल डर रहा दरिंदों का,
क्यों कदम रखने दिया
हमें किशोरवय में,
जहां समाज ने वर्जनाओं के
नाम पर बांध दिया!

क्यों यौवन की दहलीज लांघने दी,
जहां समाज ने सिर्फ
विवाह को तरजीह दी,
नहीं चाहा कि बेटी पढ़े, आगे बढ़े,
लिख ले खुद की तकदीर।
क्यों दी गर्इं हिदायतें,
अच्छी पत्नी और मां बनने की?

क्यों मां ने ये नहीं सिखाया कि
बनना तुम अपनी ताकत,
रखना खुद का खयाल,
भरना अपने सपनों में रंग,
उड़ना आजाद पंछी की तरह
क्यों खूंटे में बंधने और
दूसरों के लिए जीने की सीख दी,
मां, तुमने मुझमें अपनी परछाई देखी,
मगर क्यों नहीं देखे अपने दुख,
अपने जीवन की प्रवंचनाएंं।

मां, मैंने तब नहीं समझा था,
तेरा दुख, तेरी घुटन
जो अब बेहतर समझने लगी हूं,
तुमने हमारे लिए सबकुछ
समर्पित कर दिया,
किन्तु मां, मुझे अपनी ही तकदीर
विरासत में क्यों दी,
क्यों नहीं तुमने मेरे लिए बेहतर सोचा?
मां, आज उस परिस्थिति से गुजर कर,
मुझे तुम्हारी तकलीफों का इल्म हुआ है
तुम्हारे लिए करुणा
भर आई है मन में।

मां, तुझे देखना था न,
तेरी परछाई के लिए बेहतर स्वप्न,
उसका खुशहाल भविष्य,
लेकिन तू भी मां न होकर समाज बन गई,
मुझसे ज्यादा समाज का
दायित्व तुम्हें सही लगा,
मुझे बना दिया तुमने समाज का हिस्सा,
मेरे अस्तित्व को नकार ही दिया।

मां, तुझसे बहुत सी शिकायतें हैं मुझे,
पर जानती हूं, तुमने मुझसे अधिक
किसी से प्रेम किया ही नहीं,
तेरी सुबह से रात की दिनचर्या,
मुझसे शुरू और मुझी पर खत्म होती थी।
मां, सारी शिकायतों के मध्य
तुमसे कहना चाहती हूं,
तुमसे अधिक मैंने भी
किसी से प्रेम नहीं किया।

मां की स्मृति
जब-जब खुद को निहारती हूं,
एक झलक उनकी उभर जाती है,
वो जो दीवार में तस्वीर टंगी है न,
आज भी जैसे देख मुस्कुरा रही है,
तुम्हारी अनुकृति मैं,
तुम सी होकर भी,
मैं तुम नहीं बन सकती न मां,
न तुम उतनी दूर से वापस आ सकती हो,
मगर आईने में बनता हर प्रतिबिंब,
मुझे तुम्हारे होने का एहसास देता है।

मैं तुम्हारी ही तो लिखावट हूं न मां,
तुमने ही मुझे रचा और सांसें दी हैं
तुम्हारी प्रत्येक स्मृति,
आज भी सहेजी हुई है,
तुम्हारी हर सीख का
आज भी अनुकरण करती हूं।

तुम्हारे कमरे की हर वस्तु में,
कैद हैं तुम्हारी स्मृतियां,
तुम्हारी आवाजें, तुम्हारी हिदायतें
तुम्हारा यूं खुद में खोए रहना,
तुम्हारी मीठी झिड़कियां और
तुम्हारा भीने-भीने मुस्कुराना,
सबकुछ यंत्रवत जारी है मगर,
तुम्हारी कमी किसी भी तरह
भरती नहीं है मां,
पल-पल तुम्हारी स्मृतियां बिंधती हैं मुझे,
आज भी  हर दु:ख, हर यंत्रणा में,
केवल तुम्हारा ही स्मरण हो आता है मां…।

About the author

संतोषी बघेल

छत्तीसगढ़ के बालौदा बाजार में जन्मीं संतोषी बघेल नई कविता की सशक्त हस्ताक्षर हैं। स्नातकोत्तर तक की पढाई कर चुकीं संतोषी राजधानी रायपुर के पास सरकारी विद्यालय में अंग्रेजी की व्याख्याता हैं। वे हिंदी में कविताएं रचती हैं। उनकी रचनाओं में प्रेम के साथ विरह भी गहराई से उतरता है। सामाजिक सरोकार और रिश्ते बचाने की चिंता भी उनकी रचनाओं में है। अपनी भाव प्रवणता के कारण उनकी कविताएं ध्यान खींचती हैं। इनका एक काव्य संग्रह प्रकाशनाधीन है।

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