कविता काव्य कौमुदी

संत नरसी मेहता का भजन ‘वैष्णव जन’

गांधी जयंती पर अश्रुतपूर्वा विशेष ।।

वैष्णवजन तो तैणें कहिये जे पीर परायी जाणें रे।
पर दु:खे उपकार करे तो तो ये मन अभिमान न आणे रे।।
सकल लोक मां सहुने बन्दे निन्दा न करे केणी रे।
बाछ काछ मन निरमल राखे धन-धन जननी तेणी रे।
समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी, परस्त्री जेने मात रे।
जिह्या थकी असत्य न बोले, पर-धन नव झाले हाथ रे।
मोह माया व्यापै नहिं जेने दृढ़ वैराग्य जेना मन मां रे।
रामनाम शुं ताली लागी, सकल तीरथ तेणा मन मां रे।
वण लोभी ने कपट रहित छे, कामक्रोध निर्वार्या रे।
भणे नरसंइयों तेणु दरसन करतां, कुल एकोत्तर तार्या रे।
संत नरसी मेहता

वैष्णव तो उसी को कहना चाहिये जो दूसरे के दर्द को समझता है। जो दूसरे के दुख को दूर करने के लिये तत्पर रहता है किन्तु अभिमान नहीं करता। जो दूसरों की निन्दा नहीं करता। जिसका मन निर्मल है। जो समदृष्टि है, शत्रु-मित्र या स्तुति निन्दा को समान भाव से ही स्वीकारता है। जिसके मन में तृष्णा नहीं है। पराई स्त्री के प्रति मां का भाव है। दूसरे के धन के प्रति आसक्ति नहीं है । जो सत्य बोलता है। जिसके मन में काम क्रोध, लोभ, मोह-माया नहीं है। जिसके मन में दृढ़ वैराग्य है। जिसका ध्यान राम में रमा हुआ है, समस्त तीर्थ तो उसी के मन में आकर निवास करते हैं। ऐसे वैष्णव और उनकी जननी धन्य है। नरसी मेहता कहते हैं कि ऐसे वैष्णव के दर्शन से भी पीढियों का उद्धार हो जाता है।

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