अभिप्रेरक (मोटिवेशनल)

चलिए ढूंढते हैं खोई मुस्कान

चित्र : साभार गूगल

राधिका त्रिपाठी II

‘सैकड़ों की भीड़ में दिल तनहा मन तनहा ही रहा…
हम ओढ़ चले लबादा जिस्मों का
कि मेरा हर सफर तनहा ही रहा’

कहते हैं कि जिस्मों की भीड़ कभी मन का अकेलापन दूर नहीं कर पाती, ये तो मन की मिल्कियत है न…। मन खुश तो सब खुश, लेकिन आजकल लोगों की जि़ंदगी रेस जैसी हो गई है। लोग भाग रहे हैं निरंतर। भागते-भागते थक कर एकाकी जीवन की तरफ बढ़ रहे हैं और फीकी हंसी लिए एकांतवास काट रहे हैं। मगर एकांतवास सच में कितना एकांत है? ढेरों रिक्तता, जाने कितनी उदासियां और अनगिनत सवाल। भूली-बिसरी यादें मन को कितना बेचैन करती हैं।  मुस्कान कभी अपने होठों पर नहीं आने पाती। अगर आ भी गई तो निश्चय ही दिल तक नहीं पहुंचती। वह रह जाती है पपड़ी बन कर होठों के ऊपरी हिस्से में और उनसे मौसमी रक्त रिसता रहता है।

आखिर सब कुछ होते हुए भी हम ऐसे क्यों होते जा रहे हैं जैसे कोई मुर्दा जिस्म ढो रहे हों। जीने की कला से दूर बहुत दूर होते जा रहे हैं या यूं कहिए कि हम जीना ही नहीं चाहते, खुल कर खिलखिलाना ही नहीं चाहते। इस क्यों का क्या है कोई जवाब?

शायद हम अपनी आंखों से बड़े सपने सपने देखने लगे हैं या अपनों से जरूरत से ज्यादा उम्मीदें बांध ली हैं। या फिर हम निरंतर तिरस्कृत होते जा रहे हैं समाज से, अपनों से। किसी ने हमारा दिल तोड़ दिया है, हमें धोखा दे दिया है। ऐसी बातों से हम दुखी हो कर डिप्रेशन के शिकार हो रहे हैं।
और कुछ नहीं तो हम पड़ोसी के घर आई नई कार देख कर ही ईष्र्या पाल बैठे कि हमारे घर तो पुरानी मिक्सी को ठीक करा कर काम चल रहा और पड़ोस में कार ली जा रही। यह सब देख कर, सोच कर हमारी मुस्कान गायब हो रही है। हम सिर्फ भाग रहे हैं। निरंतर भाग रहे हैं। और कहीं नहीं पहुंच रहे हैं। जहां थे वहीं के वहीं जड़ हो चुके हैं।

आप अपने एकांतवास से बाहर की दुनिया में आइए और खुद के लिए समय निकालिए। हंसने-हंसाने की कोशिश करिए। भले ही दांत नहीं है तो क्या हुआ, मसूढ़े तो हैं न। उन्हीं से मुस्कुराइए। अपने शौक को जिंदा रखिए, किसने रोका है आपको? आपने ही तो रोक रखा है खुद को। अब मत रुकिए साथ लीजिए अपने जीवन साथी को अगर जीवन साथी नहीं है तो भरोसे का कोई दोस्त बनाइए। उससे सुख-दुख बांटिए।

ओह! अच्छा अब समझ में आया कि कृपा कहां रुकी हुई है। आप समझे क्या? नहीं न। अरे भाई वहीं उसी जड़ में चलो फिर दूंढते हैं अपनी-अपनी मुस्कान को। शायद कहीं डरी सहमी सी बैठी हो किसी कोने में। उसे ढूंढ कर सजाते हैं अपने होठों पर। … तो सबसे पहले आप अपनी जड़ों को हिला कर आक्सीजन ग्रहण करिए, फिर भत्रिका प्राणायाम, फिर कपाल भांति। उसके बाद अनुलोम-विलोम करिए। फिर देखिए तन के साथ मन भी मुस्कुराने लगेगा। कुछ ही देर में खिलखिला कर हंसने लगेगा। थोड़ा सुबह-सुबह उठिए, जाइए किसी पार्क में दौड़िए। न दौड़ पाइए तो वॉक करिए। वो भी न कर पाइए तो किसी मोहतरमा को देख कर गुनगुनाइए कोई रोमांटिक सॉन्ग जैसे दिल तो बच्चा है जी…। इसमें कुछ भी गलत नहीं। बस दिल साफ होना चाहिए दा। गाइए कि अभी तो मैं जवान हूं, अरे कुछ नहीं तो आप गहरी-गहरी सांस लेते हुए दिल को थपथपा कर जोर से गाइए भैया ऑल इज वेल …।

आप अपने एकांतवास से बाहर की दुनिया में आइए और खुद के लिए समय निकालिए। हंसने-हंसाने की कोशिश करिए। भले ही दांत नहीं है तो क्या हुआ, मसूढ़े तो हैं न। उन्हीं से मुस्कुराइए। अपने शौक को जिंदा रखिए, किसने रोका है आपको? आपने ही तो रोक रखा है खुद को। अब मत रुकिए साथ लीजिए अपने जीवन साथी को अगर जीवन साथी नहीं है तो भरोसे का कोई दोस्त बनाइए। उससे सुख-दुख बांटिए। आखिर जीना है न, लड़ना भी है अकेलेपन से तो तलाशिए अपनी खुशियों की चाभी को और दीजिए अपने सपनों को आकार।

करिए वो सब नादानियां जो आप कभी कर ही नहीं पाए व्यस्तता की वजह से, समय न होने की वजह से। खूब मस्ती करिए और दूसरों में भी जीवन भरिए, उमंग भरिए ताकि कोई होंठ सूखे न रहें। कोई चेहरा उदास न हो। सभी होठों पर एक मुस्कुराहट लौट आए। …तो चलिए ढूंढते हैं अपनी खोई हुई मुस्कान को।

About the author

राधिका त्रिपाठी

राधिका त्रिपाठी हिंदी की लेखिका हैं। वे सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर बेबाक होकर लिखती हैं। खबरों की खबर रखती हैं। शायरी में दिल लगता है। कविताएं भी वे रच देती हैं। स्त्रियों की पहचान के लिए वे अपने स्तर पर लगातार संघर्षरत हैं। गृहस्थी संभालते हुए निरंतर लिखते जाना उनके लिए किसी तपस्या से कम नहीं है।

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