अभिप्रेरक (मोटिवेशनल)

स्त्रियों को चाहिए खुद का आसमान

फोटो : साभार गूगल

राधिका त्रिपाठी II

कहते हैं मृत्यु अटल सत्य है जिसे जिसे टाला नहीं जा सकता। मृत्यु की तरफ बढ़ते कदम स्वत: ही बढ़ जाते हैं। कभी लड़खड़ाते हुए तो कभी तेजी से, परंतु ये कदम अकेले ही नहीं बढ़ते। इन कदमों के साथ कई जोड़े और पांव बढ़ते हैं जो मर रहे होते तिल-तिल कर बिछड़ने के गम में, जो पांव स्थिर हो जाते इस यात्रा में, वो उसी वक्त मृत्यु तुल्य हो जाते हैं। वे स्वयं में स्तब्ध होकर दिशाविहीन हो जाते हैं। और पृथ्वी की तरह चक्कर लगाते हुए सूर्य के उदय होने की लालिमा से लेकर अस्त होने की गरिमा को अपने आंतरिक मन में कैद करते रहते…।

स्त्रियों के हाथों की उंगलियां बेहद संवेदनशील होती हैं वो जब स्नेह से माथे को सहलातीं बालों में उंगलियां फेरतीं तो माता बन जाती। हौले से पास आकर गालों को खींच कर चूमतीं तो बहन, जब वो चेहरा हथेलियों में भर कर अधरों को चूमतीं तो प्रेयसी की गरिमा से गुलाबी हो जातीं। हाथों को थाम कर जमाने से भिड़ने और साथ निभाने पर वो मित्र की आभा से प्रकाशमान होती। इस तरह वो हर रिश्ते को सींचती हैं निस्वार्थ प्रेम और अंत में मां बन जाती हर रिश्ते की… तय करती अंतिम यात्रा को…।

स्त्रियां वसीयत नहीं छोड़तीं वे पत्थरों पर निशान छोड़ती हैं। वे इतिहास का हिस्सा भी नहीं बनतीं बल्कि वर्तमान को इतिहास बना देती हैं। स्वयंभूू होती हैं स्त्रियां। इन्हें नहीं चाहिए होता कोई प्रेमी। इन्हें बस पिता चाहिए। या फिर घर का कोई एकांत कोना, जहां ये मिलती हैं खुद से सजी-संवरी। हर रूप में देखती हैं कई ख्वाब खुली आंखों से और उड़ती हैं खुद के बनाए आसमान में। इन्हें चाहिए होता है एक ऐसा पुरुष जो गा सके लोरी, सुना सके कोई कहानी। होठों पर मुस्कान लाने के लिए कर सके बे-सिर पैर की बातें। सुन सके इनकी चूड़ियों की खनक, पाजेब की रुनझुन, खो जाए बिंदियां की चमक में और देखे सिंदूर में उसका समर्पण। इन्हें चाहिए होता है जब तब एक कंधा जिससे सिर टिका कर रो सकें जी भर और बोल दे कि सुनो आज मैं बहुत उदास थी तो तुम्हारी याद आई बहुत।

स्त्रियां किसी के सीने से कम ही लगती हैं। इन्हें चाहिए होता है नाजुक सा मन जो समझ सके इनके उलझे मन को और ढूंढ कर ला सके इनका बचपन। क्योंकि स्त्रियां पैदायशी मां होती हैं। इन्हें चाहिए होता है स्नेह का वो साथ जो उम्र भर एक सफर में हमसफर सा महसूस कराता रहे…।

स्त्रियां वसीयत नहीं छोड़तीं वे पत्थरों पर निशान छोड़ती हैं। वे इतिहास का हिस्सा भी नहीं बनतीं बल्कि वर्तमान को इतिहास बना देती हैं। स्वयंभू होती हैं स्त्रियां। इन्हें नहीं चाहिए होता कोई प्रेमी। इन्हें बस पिता चाहिए। या फिर घर का कोई एकांत कोना, जहां ये मिलती हैं खुद से सजी-संवरी। हर रूप में देखती हैं कई ख्वाब खुली आंखों से और उड़ती हैं खुद के बनाए आसमान में। इन्हें चाहिए होता है एक ऐसा पुरुष जो गा सके लोरी, सुना सके कोई कहानी। होठों पर मुस्कान लाने के लिए कर सके बे-सिर पैर की बातें। इन्हें चाहिए होता है जब तब एक कंधा जिससे सिर टिका कर रो सकें जी भर और बोल दे कि सुनो आज मैं बहुत उदास थी तो तुम्हारी याद आई बहुत।

मै जब भी एकांत होती या किसी स्त्री को देखती तो मेरी आंखें उनकी आंखों में कैद हो जाती और मेरे होठ उनके होठों की हंसी खोजने लगते। अक्सर स्त्रियां हंसते हुए रोने लगतीं और रोते हुए हंसने। दोनों का कोई सार, कोई छोर मुझे आज तक मिला नहीं। न ही कोई हल ही निकला… ये कभी अबूझ लगीं तो कभी, चंचल हिरणी, कभी बंजर सी, तो कभी इठलाती नदी। इन्हें कभी कोई सागर आज तक क्यों नहीं मिला जो खारा कर सके इन्हें अपने संग। ये सदैव मीठी ही रही…झरने सी।

इनके सिर से चुनर खींचने वाले हाथ सदैव चरित्रवान कैसे हो गए और ये चरित्रहीन कैसे हुर्इं? मुझे आज तक कोई चरित्रहीन स्त्री नहीं नजर आई न ही कोई चरित्रवान पुरुष से मेरी मुलाकात हुई। मै एक खोज में हूं निरंतर चरित्रहीन स्त्रियों के और चरित्रवान पुरुष के…! स्त्रियां चाहें तो प्रेम में अग्निपरीक्षा भी दे सकतीं हैं और चाहें तो प्रतिकार कर धरती का सीना फाड़ समा सकती हैं। वो प्रेम मग्न होकर मीरा तो प्रेम का रसपान कर राधा बन सकती हैं। फिर भी ठोकरें क्यों? चरित्रहीनता की चादर उन्हीं पर क्यों?

सभी स्त्रियों को खुद का एक आसमान तलाशना चाहिए जिसमें वो खुद को चमका सकें। भर सकें ऊंची उड़ान निर्भीक होकर। दे सकें हर लांछन का जवाब। कह सकें यह मेरी जिंदगी है, मैं जानती हूं जीना। मुझे मालूम है चरित्रहीनता की सारी परिभाषा, मैं खुद में एक दुनिया हूं मुझे दुनियादारी से कोई मतलब नहीं।
अब बस बहुत हुआ। रहने दो कुछ साबित नहीं करना मुझे। जैसी हूं मैं, खुद को पसंद हूं मैं … मत दिखाओ मुझे अब समाज का आइना…।

About the author

राधिका त्रिपाठी

राधिका त्रिपाठी हिंदी की लेखिका हैं। वे सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर बेबाक होकर लिखती हैं। खबरों की खबर रखती हैं। शायरी में दिल लगता है। कविताएं भी वे रच देती हैं। स्त्रियों की पहचान के लिए वे अपने स्तर पर लगातार संघर्षरत हैं। गृहस्थी संभालते हुए निरंतर लिखते जाना उनके लिए किसी तपस्या से कम नहीं है।

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