राधिका त्रिपाठी II
प्रिये तुम मुझमें रोज जन्मती हो, रोपती हो किलकारी, चलाती हो हाथ-पांव। मारती हो गुलाटी। अपने स्पंदन से मुझे आनंदित करती हो। तुम मुझे दुनिया दिखाने हेतु मुझमें ही रह गई हो। अजन्मी निराकार सी। ज्यों ज्यों महीने, साल बीत रहे हैं तुम और प्रगाढ़ कर रही हो हमारे प्रेम को। तुम नहीं होती तो कौन सिखाता मुझे प्रेम का ये सार जो सभी ग्रंथों से ऊपर है, जिसके बिना किसी ग्रंथ को करीने से लिपिबद्ध नहीं किया जा सकता। तुम्हीं ने बताया कि प्रेम अजर है। मर नहीं सकता। प्रेम को कंधे पर लाद कर तांडव किया जा सकता है। प्रेम में वैराग्य लिया जा सकता है…!!
सुनो प्रिये ….
मै तुम्हें किसी पुरुष प्रेमी की तरह नहीं प्रेम कर पाऊंगा। क्योंकि तुम्हें प्रेम करने के लिए मुझे स्त्री बनना होगा तो मैं तुम्हारी मां बन कर ही प्रेम करूंगा सदा, तभी मै प्रेम समझ सकूंगा और साथ निभा सकूंगा। तो सुनो-अब से मैं तुम्हारी मां हूं, काजल का एक टीका तुम्हारे माथे पर लगाऊंगा, सुनाऊंगा सोन चिरैया वाला प्यार भरा गीत। अपने हाथों से खिलाऊंगा फूंक-फूंक कर एक-एक निवाला। दूंगा थपकी धीरे धीरे अपने सीने से लगा कर। अपने पैरों पर रख कर पैर तुम्हारे चलाऊंगा एक-एक कदम। बांध दूंगा तुम्हारे बालों में लाल रंग का रिबन। दिलाऊंगा गुब्बारे, पी पी करती पिपिहिरी, घुमाऊंगा मेला तुम्हारी उंगलियां थामे। तुम बस अपने आने का क्रम मत तोड़ना क्योंकि मैं तुम्हारे इंतज़ार में हूं …
मैं तुम पर अपना सारा प्रेम लुटा देना चाहता हूं। मेरे अंदर प्रेम का एक सागर उमड़ रहा है, मैं इस सागर को खाली कर एकदम शून्य हो जाना चाहता हूं। तुम मुझमें बूंद-बूंद टपक रही हो, जैसे कोई ओस की बूंद रात को टपकती है किसी कोपल पर और ठहर जाती है…। मैं पुन: उसी बूंद से सागर बन जाऊंगा और फिर तुम्हें आवाज दूंगा। तुम चली आना मेरे पास निसंकोच अपनें बालों में मोगरे का गजरा लगाए और बांहें फैलाए कि मैं अनवरत तुम्हारे ही इंतज़ार में था कई जन्मों से, मैं पुन: प्रेम का सागर तुम में खाली करने के लिए तैयार हूं…।
फोटो : साभार गूगल
सुनो प्रिये …
मैं तुम पर अपना सारा प्रेम लुटा देना चाहता हूं। मेरे अंदर प्रेम का एक सागर उमड़ रहा है, मैं इस सागर को खाली कर एकदम शून्य हो जाना चाहता हूं। तुम मुझमें बूंद-बूंद टपक रही हो, जैसे कोई ओस की बूंद रात को टपकती है किसी कोपल पर और ठहर जाती है…। मैं पुन: उसी बूंद से सागर बन जाऊंगा और फिर तुम्हें आवाज दूंगा। तुम चली आना मेरे पास निसंकोच अपनें बालों में मोगरे का गजरा लगाए और बांहें फैलाए कि मैं अनवरत तुम्हारे ही इंतज़ार में था कई जन्मों से, मैं पुन: प्रेम का सागर तुम में खाली करने के लिए तैयार हूं…। यह क्रम यूं ही चलता रहेगा निरंतर बिना किसी बाधा के बस तुम आने क्रम निरंतर जारी रखना…
प्रेम कहां से जन्मता है?
इसका क्या अस्तित्व है?
यह सभी में स्वयं जन्मता है और अस्तित्व धारण करता बूंद-बूंद रमता है लहू सा लाल और सागर बन उमड़ता … यह विचार करना कि कहां से प्रेम की उत्पत्ति हुई, मानव जाति के बस का नहीं …। चिंतन छोड़ प्रेम में रम जाना और यह समझ लेना मैं ही प्रेम हूं मैं ही प्रेम का सर्जन करता और विसर्जन करता हूं, सब मुझमें ही है। मैं ही धरा के कण-कण को प्रेम से सराबोर कर सकता हूं, या कर सकती हूं। बस यही एक सत्य है बाकी मिथ्या…।
(अहं ब्रह्म अस्मि) अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं… उपनिषदों के चार महाकाव्यों में यह ऐसे ही नहीं कहा गया। यह महाकाव्य समस्त मनुष्य जाति को यह महसूस करने के लिए विवश कर देता है कि जिस भगवान ने समस्त संसार की रचना की है उसी का एक अंश मैं स्वयं भी ग्रहण करता हूं अर्थात मैं भी ब्रह्म हूं। मेरा अस्तित्व तनिक भी धूमिल नहीं होगा चाहे मैं रहूं या न रहूं। मेरे न होने में भी मेरा होना है और मेरे होने में भी मेरा होना तय है। मैं सब कुछ स्वयं में समेट कर पूरा ब्रह्मांड हूं जैसे श्रीकृष्ण …। मैं जाकर भी संसार से कभी विदा नहीं होऊंगा मैं यहीं इसी पल की तरह हर पल बस जिऊंगा… यही तो जीवन है यही हमारा अस्तित्व, कभी न खत्म होने वाला।
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