अभिप्रेरक (मोटिवेशनल) जीवन कौशल

निर्विचार होकर सुनना सीखा?

ओशो II

प्रज्ञा क्या है? प्रज्ञा का अर्थ है- सचेतनता, होश, एक जीवंत उपस्थिति, एक तात्कालिक और निकटस्थ समीपता। यहां ऐसा प्रतिदिन होता है। मैं तुम्हारी ओर देखे चले जाता हूं। मैं जब भी किसी बुद्धिजीवी व्यक्ति को देखता हूं, तो तुरंत ही यह अनुभव कर लेता हूं कि उसने एक दीवार से अपने को चारों ओर से बंद कर रखा है। वह सुनते हुए भी नहीं सुन रहा, क्योंकि वह इसके बारे में निरंतर विचार कर रहा है कि ठीक है। अथवा नहीं, वह निरंतर सोचे जा रहा है कि वह मुझसे सहमत है या नहीं, वह निरंतर विचार कर रहा है- ‘हां’ या ‘नहीं’, और वह इनमें चुनाव कर रहा है। और इस चुनाव में ही वह सत्य से वंचित हो रहा है, और पूरे मुद्दे से चूके जा रहा है।

एक प्रज्ञावान या बुद्धिमान व्यक्ति निर्विचार होकर होशपूर्वक सुनता है। उसे ठीक अभी ही निर्णय लेने की कोई आवश्यकता नहीं होती। वह तुरंत मेरे साथ हो लेता है। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि मुझसे सहमत होता है। इसका यह अर्थ नहीं कि वह असहमत होता है। नहीं! वह पूरी तरह केवल सुन रहा है। सहमत या असहमत होने की कोई बात है ही नहीं, वह बाद में हुआ जा सकता है। और तब इस बारे में एक चमत्कार होता है। यदि तुम समग्रता से होशपूर्वक सुन सकते हो, तो उस सुनने में ही यह जान जाओगे कि क्या सत्य है और क्या असत्य है।

इसके बारे में फिर सोचने की जरूरत होगी ही नहीं। खामोशी से श्रवण करने की गुणात्मकता ही तुम्हें इसके प्रति सचेत बना देगी कि सत्य क्या है ? याद रखो, सत्य स्वयं ही अपने को प्रकट करता है। सत्य जब होता है, तब तुम्हें अनुभव होना शुरू हो जाता है कि वह वहां है। जब वह वहां नहीं होता, तो हजार तर्क देकर भी तुम यह सिद्ध नहीं कर सकते कि वह वहां है। सत्य की अपनी शुद्ध उपस्थिति होती है,. तुम्हें बस उपलब्ध बने रहना होता है।

  • यदि तुम समग्रता से होशपूर्वक सुन सकते हो, तो उस सुनने में ही यह जान जाओगे कि क्या सत्य है और क्या असत्य है। इसके बारे में फिर सोचने की जरूरत होगी ही नहीं। खामोशी से श्रवण करने की गुणात्मकता ही तुम्हें इसके प्रति सचेत बना देगी कि सत्य क्या है ?

इसलिए सीखने की क्षमता का अर्थ है प्रज्ञा, बुद्धिमानी, निर्दोषता; एक बच्चे की तरह अज्ञात में जाने और उसे खोजने की तैयारी, जीवन के रहस्य का अनुभव करने के लिए हमेशा एक तरह की विस्मय विमूढ़ता। यही होती है सीखने की क्षमता और योग्यता, जो एक व्यक्ति को शिष्य बनाती है।

इसके विरुद्ध होती है, सीखने की अक्षमता जानकारी और ज्ञान बटोरने की प्रवृत्ति- या कहें कि एक तरह की मूढ़ता, इन दोनों का अर्थ एक ही है। विद्वता और मूढ़ता, ये दोनों समानार्थक हैं। पूर्वाग्रहों, जंग, कबाड़ और अतीत से भरा हुआ एक ऐसा मन, जो चारों ओर से बंद है और जिसमें किसी नए के लिए कोई स्थान है ही नहीं।

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Ashrut Purva

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