मनस्वी अपर्णा II
अखबार में छपी एक घटना ने मेरा आज फिर इस बात पर यकीन पुख्ता कर दिया कि कृतज्ञता, उदारता और बड़प्पन के लिए पैसा, समृद्धि या पद नहीं बल्कि आपकी मनस्थिति मायने रखती है। कोई भी, कभी भी, उदार और विशालमना हो सकता है, और ऐसा करने के लिए उसके भीतर की इंसानियत का कद ऊंचा होना चाहिए बस…। एक बेहद गरीब और झुग्गी में रहने वाली महिला ने पुलिस को बतौर इनाम 600 रुपए दिए, क्योंकि पुलिस ने उसकी शिकायत पर तुरंत कार्रवाई करते हुए उसे उन लोगों से छुटकारा दिलवाया जो उस महिला के साथ जोर-जबरदस्ती कर उसकी झुग्गी पर अवैध रूप से कब्जा करना चाह रहे थे। महिला ने पुलिस की त्वरित कार्रवाई से खुश होकर पुलिसकर्मियों को बतौर इनाम 600 रुपए का चेक दिया, जिसे पुलिस ने फ्रेम करवा कर थाने में लगा दिया है।
कोई महिला जो किसी झुग्गी बस्ती में रहती है उसकी आर्थिक स्थिति की कल्पना बड़ी आसानी से की जा सकती है, उसके लिए 600 रुपए कितने मायने रखते हैं ये भी बड़ी आसानी से समझ आ सकता है। ऐसे में उसका बतौर इनाम यह रकम देना उसके भीतर मनुष्यत्व की ऊंचाई को दिखाता है। उसकी उदारता और कृतज्ञता को दिखाता है। ये मनुष्यता के उच्चतम शिखर को छूने वाली बात है, और जब भी हम गहराई से सोचेंगे तो यही पाएंगे कि मनुष्यता के किसी भी गुण के लिए आर्थिक या सामाजिक स्थिति कोई मायने नहीं रखती। आप जहां हैं जिस जगह है, वहीं से अपने मनुष्य होने का फर्ज बखूबी निभा सकते हैं।
कृतज्ञता, संवेदनशीलता, दायित्व बोध और करुणा जैसे किसी भी भाव के लिए आपको किसी धन या पद की ज़रूरत नहीं होती। अभी हाल ही में पद्म पुरस्कार हासिल करने वाली आदिवासी महिला तुलसी अम्मा का उदाहरण लीजिए, बिना किसी विशेष आर्थिक या सरकारी सहायता के वो पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन के अपने दायित्व प्रति अपनी प्रतिबद्धता साबित कर रही है। और ये बस ऐसे ही किया जाता है, अगर आप वास्तव मे करना चाहते हैं तो।
हमारे पास करीबन रोज ही कोई न कोई ऐसा मौका जरूर आता है जब हम अपने मनुष्य होने के चरम को छू सकते हैं, अपने मनुष्य होने के दायित्व का निर्वहन कर सकते हैं लेकिन बदकिस्मती से हमने भौतिकता की होड़ में इन सब मौकों से आंखें फेरना सीख लिया है, हम अनदेखी करना सीख गए हैं और दिन-ब-दिन और कठोर और उदासीन होते जा रहे हैं, उसका नतीजा यह है कि हम भीतर से अशांत और असंतुष्ट होते जा रहे हैं। हम गहराई से सोचेंगे तो यही पाएंगे कि मनुष्यता के किसी भी गुण के लिए आर्थिक या सामाजिक स्थिति कोई मायने नहीं रखती। आप जहां हैं जिस जगह है, वहीं से अपने मनुष्य होने का फर्ज बखूबी निभा सकते हैं।
फोटो : साभार गूगल
हमारे पास करीबन रोज ही कोई न कोई ऐसा मौका जरूर आता है जब हम अपने मनुष्य होने के चरम को छू सकते हैं। अपने मनुष्य होने के दायित्व का निर्वहन कर सकते हैं, लेकिन बदकिस्मती से हमने भौतिकता की होड़ में इन सब मौकों से आंखें फेरना सीख लिया है, हम अनदेखी करना सीख गए हैं और दिन-ब-दिन और कठोर और उदासीन होते जा रहे हैं, उसका नतीजा यह है कि हम भीतर से अशांत और असंतुष्ट होते जा रहे हैं। भौतिक सुख-समृद्धि के तमाम साधन आपके भीतर की कोमलता को उत्प्रेरित कर पाने में अक्षम हैं। ऐसा लगता जरूर है कि किसी एक खास ‘स्टेटस’ पर पहुंच कर हम खुद को ज्यादा बेहतर महसूस करेंगे, लेकिन कर नहीं पाते, भीतर एक रीतापन बना रहता है। ऐसा इसलिए क्योंकि हम लगातार अपनी जड़ों से दूर जा रहे हैं।
हम जितना अधिक मनुष्य बनेंगे भीतर से उतना ही ज्यादा शांत और संतुष्ट होते जाएंगे। इस बात को, इस कीमिया को कभी भी आजमाया जा सकता है। किसी की मदद का कोई छोटा सा प्रयास, सहानुभूति का एक क्षण, उदारता का एक कृत्य, करुणा का एक आंसू, कृतज्ञता का एक शब्द आपको उस जादू से परिचित करवा सकता है। बशर्ते ये सब आप बिना किसी अपेक्षा कर रहे हों। यदि प्रतिदान या प्रसिद्धि की अपेक्षा से बंध कर ये सब करेंगे तो फिर एक नया यांत्रिक तंत्र आपने बना लिया है। नहीं किसी अपेक्षा में नहीं बिलकुल सहज होकर, बस यूं कि किया और भूल गए। बस उस कृत्य का आनंद लिया। निश्चित रूप से आप वो स्वाद चख लेंगे जिसे भुलाना नामुमकिन होगा।
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