‘डाॅ• चन्द्रिका चन्द्र’ II
मनुष्य के मनोभावों में दुख, करुणा का स्थायी भाव है। प्राय: सभी इस स्थायी भाव से मुक्ति चाहते हैं दुख के विस्तार का कोई ओर छोर नहीं है। कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन को पता था कि पुत्र सिद्धार्थ किसी भी दुखी को देखकर बेचैन हो जाएंगे इसलिए उन्होंने ऐसी व्यवस्था बनाने की पूरी कोशिश की, कि सिद्धार्थ के रास्ते में कोई ऐसा न दिखे जिससे उनके मन में करुणा उत्पन्न हो सके परन्तु सम्भव न हो सका। पहली करुणा भाई के बाण से आहत हंस को देखकर उपजी और उनकी जिद के कारण मृगया का विधान बदलना पड़ा कि मारने वाले से बड़ा अधिकार बचाने वाले का है। कालांतर में तमाम सुरक्षा कवचों के बाद भी रोगी, वृद्ध और शमशान की ओर जाती अर्थी को देखकर जाना कि धरती पर आने वाले हरेक व्यक्ति की यही नियति है। उनकी करुणा का स्फोट हुआ और वे सोती पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को छोड़ दुख की शाश्वतता का हल ढूंढने रात को निकलकर कपिलवस्तु की सीमा पार कर गए। बुद्धत्व प्राप्त होने और तथागत बनने के बाद भी दुख अपनी पूरी शिद्दत से उपस्थित है। दुख से उपजी करुणा ने अनुष्टुप छन्द बन बाल्मीकि को आदि कवि बना दिया। इसी दुख ने सिद्धार्थ को भगवान बना दिया। सीता निष्कासन का दुख भवभूति ने कुछ इस तरह अनुभव किया कि उत्तर रामचरितम लिख राम के न्याय और ईश्वरत्व पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया। सारे लोक मानस ने सीता के दुखों को लोकगीतों में गाया। सच तो यह है कि दुख के बाद प्राप्त सुख ही वरेण्य हुआ। सुख के बाद का दुख जीते हुए भी मरे के समान है। सम्पूर्ण जीवन में सुख का प्रतिशत घने बादलों में बिजली की चमक की तरह क्षणिक है। सुख के लिए दुख का संघर्ष ही प्रेरणास्पद हैं सुख से थकने के उदाहरण हैं परन्तु दुख में लड़ने की ताकत मिलती है, थकान नहीं। हंसकर व्यक्ति थक जाता है परन्तु रोने के बाद ऊर्जा का नया संचार होता है, इसीलिए कवियों -लेखकों ने दुख पर पर्याप्त चिंतन किया है और माना है कि दुख मनुष्य को मांजता है। रावण जैसे शक्तिशाली सुखी व्यक्ति की सुरक्षित लंका की दुखी प्रताड़ित सेना ने ध्वस्त कर दिया। सच्चिदानंद वात्सायन ने कहा है दुख सबको मांजता हैं। ऐसा कोई भी नहीं है जिसे दुखों से दो-चार न होना पड़ा हो। दुख जब आते हैं तो लोक यहां तक मानता है कि -राजा नल पर बिपति परी मछली दह मगिरी। कवियों के बारे में मान्यता है कि कवि वियोगी होता है। के दुख की अनुभूति कवि स्वयं करता है ओर उसे लोक को सौंपकर विस्तार देत हैं। बहुत से प्रेम वियोगी हैं पर वे कवि नहीं हैं। स्वानुभूति और सहानुभूति में तालिक अंतर है परंतु जब सहानुभूति चरम पर पहुँच स्वानुभूति बन जाती है तभ रचना श्रेष्ठ हो जाती है। बाबा नागार्जुन अपनी एक कविता में कालिदास से पूछते हैं ‘इन्दुमती की विरह-व्यथा में अज रोया या तुम रोए थे/ रोया यक्ष कि तुम रोए थे कालिदास सच सच बतलाना । करुणा ही वह बीज तत्व है जो मनुष्य को सारे जीवों से पृथक करती है, यदि उसका विकास नहीं हुआ तो वह नृशंस पशु से भी भयावह है। वाल्मीकि शोक जनित करुणा के बावजूद व्याघ्र को शारीरिक क्षति तो नहीं पहुंचा सकते थे, शाप ही एक मात्र शस्त्र था ओर पता नहीं वह शाप उसे भोगना भी पड़ा या नहीं इसका उल्लेख नहीं मिलता, परन्तु कविता का जन्म तो हुआ।
“हिन्दी के आधुनिक कवियों ने दुख का सामना करते हुए भी सिवाय जयशंकर प्रसाद के किसी ने ‘आँसू’ नहीं बहाए। ‘निराला’ आजीवन दुखों से जूझते रहे परन्तु ‘सरोज स्मृति’ के अतिरिक्त कोई शोकगीत नहीं लिखा। युवा दहलीज पर खड़े निराला विधुर हुए। मनोहरा देवी के प्रति लिखी कविता में उनके गुणों की बातें हैं अपनी पीड़ा का बखान नही। बेटी सरोज की मृत्यु पर उन्होंने स्वीकार किया ‘दुख ही जीवन की कथा रही/क्या कहूँ आज जो नहीं कही/ धन्ये मैं पिता निरर्थक था/ कुछ भी तेरे हित कर न सका/’ अपने पिता होने की निरर्थकता व्यक्त कर निराला ने वर्षों जमें अंदर के दर्द को सार्वजनिक किया, जबकि सारा हिंदी समाज निराला को अक्खड़-फकड़ क्या नहीं कहता था। फक्कड़ के जाता है। वे मानते रहे ‘मरण को जिसने वरा है। उसी ने जीवन भरा है।’ कविता, दुख से आसमान फट कवि की जीवन सहचरी है। कोई कवि के दुख में साथ दे न दे, उसे विश्वास है कि उसकी कविता उसका साथ देगी। बाबू केदारनाथ अग्रवाल बहुत आश्वस्त भाव से स्वीकार करते हैं कि- ‘दुख ने मुझको जब जब तोड़ा/मैंने/अपने टूटेपन को / कविता की ममता से जोड़ा/ जहां गिरा मैं/ कविताओं ने मुझे उठाया/ दुख सृजनकी सीख देता है। लड़ने और इकट्ठा होने की प्रेरणा देता है। रूस के जार का अत्याचार चरम पर पहुँचा तो सभी दुखी और पीड़ितों ने एकत्रित होकर लड़ने का संकल्प लिया और क्रांति हुई। फ्रांसीसी राज्य क्रांति भूख के दुख से मरने से बेहतर लड़कर मरने का परिणाम भी / पाप के विरुद्ध मार्टिन लूथर का संघर्ष चेतना के स्तर पर हो रहे धार्मिक अन्याय का प्रतिकार था। दुख तोड़ता है, मनुष्य की परीक्षा लेता है, जो इस परीक्षा में पास होता है वह अमर होकर हरिश्चन्द्र हो जाता है। कुछ ऐसे भी दुख होते हैं जिन्हें आदमी सिर्फ भोगता है, व्यक्त कभी किसी से नहीं करता परन्तु कविता सहचरी से कह देता है। बघेली बोली के श्रेष्ठ और वरिष्ठ कवि विजय सिंह परिहार दस वर्षों से दिन में दो बार डायलिसिस कराते हैं, उनकी पत्नी प्रतिदिन यह क्रिया करती हैं। विजय को देखकर नहीं लगता कि वे दुखी हैं, बीमार हैं। उन्होंने वर्षों पहले लिखा था- जाने कई पोरसा है दुक्ख कै दहारि। ऊपर से चुप्प रहइ, भितरे गोहारि। बोझा अस लागत है जिन्दगी हमारि’। यह उनहोंने दूसरों के दुख को अपना मानकर लिखा था। आज की स्थिति में बेवाक होकर दुख को बांटकर उसको फैलाकर (बगराइ कइ) लोकार्पित कर खुश होते हैं। वे जानते हैं कि दुख विस्तारित होकर अनेक दुखियों को जीवन देता हैं- दुक्ख आतिमा क्। झुरान सनकरइया कस। कुट्ट से टोरि देत, हइ/परदनी कस निचोड़ कई/ खूंटी मा टाँगि देत हइ/ फेरि डारा मा बगराइ देत हइ’। दुख लड़ने की असीम शक्ति देता है। दुख में रोटियां बांटकर खाई जाती हैं, सुख, आभिजात्य का द्वैत पैदा करता है, अपने को दूसरे में बेहतर मानकर दूरी बनाता है। सुख के अनेक प्रकार होते हैं, दुख, सब एक ही प्रकार के होते हैं। सुख दूसरे का सुख देख कर ईष्र्या करता है, दुख पास खींचता है। दुख कभी नहीं सोचता कि दूसरे दुखी हों, वह सभी को दुखों से मुक्ति की कामना करता है कदाचित इसीलिए आधुनिक हिंदी कविता के कालजयी कवि अज्ञेय कहते हैं- ‘दुख सबको मंजता है। स्वयं चाहे मुक्ति देना। वह न जाने किन्तु जिनको मांजता है। उन्हें यह सीख देता है/ कि सबको मुक्त रखें।’
दुख, आपस में कह-सुनकर परिमाण में कम-अधिक मानकर अपने को कुछ कम दुखी मानकर सुख प्राप्त कर लेते है। दुख का कलेजा काठ का होता है, हर तरह का दुख झेलने की क्षमता उसे सहज ही प्राप्त होती है। वह इसे समय या काल बली के ऊपर छोड़ देता है। जिन्हें सब सुखी देखते मानते हैं वे कितने भीतर से टूटे हुए दुखी चलनी की तरह झांझर होते हैं, उनका अंतरंग बनकर पूंछे तो सुख के अपार दुख सुनकर दुख सिर घुनते हुए कहेगा कि भाई। तुमसे तो हम अच्छे हैं। सुख, दुख का हल्का झटका भी नहीं सह सकता। सुख के अनंत दुख है। जिनके कई घर है उनको उनकी रक्षा-सुरक्षा की व्यवस्था उनके अनुसार न हो पाने का दुख है। मेरे एक मित्र हैं, उनके पास अपार सम्पत्ति है। एक लड़का है, पढ़ा लिखा है, अमेरिका में रहना चाहता है। एक दिन बोले मेरी इस सम्पत्ति का क्या होगा, बेटा कहता है मैं वहां काम करूंगा। सम्पत्ति के अधिक होने का दुख उन्हें सता रहा है। फिर भी निन्नानवे का चक्कर अभी खत्म नहीं हो रहा है, धीरे-धीरे वे अवसाद की स्थिति में आते जा रहे है। जिन्होंने धन को सुख माना है, वे धन के लिए कोई भी धतकरम करने में नहीं चूकते। दूसरे का सुख उनके दुख का कारण है। भारत का किसान तमाम दुखों के बाद भी बहुत सुखी था। प्रकृति की मार अवर्षा, अतिवर्षा, पाला, ओला की मार सहकर सब कुछ ईश्वर के नाम सौंपकर रोता हुआ भी खुश था। गांव के त्यौहार के आसरे या अन्य प्रदेशों में काम करके चार महीने बाद आषाढ़ में खेती में फिर लग जाता था। फसल बोता था, आकाश को देखकर जीता था। आकाश के धोखा देने पर भी कभी आत्महत्या नहीं करता था। अट्ठासी के अकाल में भी वह नहीं मरा। कहते हैं बंगाल के अकाल में भी कितने ही लोग भूख से मरे परन्तु किसी ने आत्म हत्या नहीं की। आज किसान जुआंरी है। कर्ज लेकर खेती करता है, कर्ज का ब्याज हनुमान के पूंछ की तरह बढ़ता है। अधिक कमाने के जुआ के खेल में हरदम जीत तो होती नही। जुआंरिओं ने राज्य दांव पर लगा दिया, स्त्री को दांव पर लगा दिया। हार गए, स्त्री की साड़ी तक खिंचने की कोशिश भरी सभा में की गई। जिन्हें शर्म से आत्महत्या करनी थी वे धर्म राज कहलाते रहे। वन-वन भटकते रहे, परन्तु आत्म हत्या नहीं की और जुआंरी किसान मर रहा है। किसी भी गरीब दुखी खेतिहर किसान को हमने आत्महत्या करते नहीं देखा। मैं गांव से हूँ, दुख का विस्तार हमने गांवों में देखा है। जिस कर्म की निंदा होनी चाहिए उसका राजनैतिक महिमामंडन हो रहा है। सौभाग्य के दिन फिरते हैं, सभी दिन एक समान नहीं होते। पांडवों ने जितने वर्ष कष्ट में बिताए उतने दिन तक राज्य नहीं किया, जबकि कृष्ण उनके सारथी, मित्र, सखा थे। दुख तो उन्होंने भी देखा, सारा परिवार आपस में लड़कर मरा। दुख का शाश्वत सत्य है और दुख, मनुष्य को मांजकर खरा सोना बनाता है।
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