स्वास्थ्य

लोकतंत्र दुरुस्त रहेगा तभी बचेगी सेहत

फोटो : साभार : रायटर/गूगल

डॉ. एके अरुण II

यदि मैं यह कहूं कि अपने देश में लोकतंत्र बचा रहा तभी आपकी सेहत बचेगी, तो आप मुझ पर शायद हंस दें लेकिन सच्चाई यही है कि आम लोगों का स्वास्थ्य लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही ठीक रह सकता है। यदि हमने अपने देश में लोकतंत्र को इसके मूल स्वरूप में कायम नहीं रखा तो आम लोग ताउम्र बीमारी और मौत के साये में जीने को अभिशप्त होंगे। अभी हाल ही में संयुक्त राष्ट्र परिषद में ग्लोबल हेल्थ प्रोग्राम के निदेशक डा. थामस जय बालीक्य एवं उनके सहयोगियों ने अपना शोध पत्र दुनिया के एक प्रतिष्ठित चिकित्सा जर्नल लासेंट में प्रकाशित किया है। इस अध्ययन में 1980 से 2015 के दौरान लगभग 170 लोकतांत्रिक देशों के मेडिकल डाटा के आधार पर यह बताया है कि जन स्वास्थ्य और लोकतंत्र का अन्योनाश्रय संबंध है और लोकतंत्र के बिना सब के लिए स्वास्थ्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

प्रो. बालीक्य के अध्ययन के अनुसार लोकतांत्रिक देशों में हृदय रोग, स्ट्रोक, तपेदिक, कैंसर, सड़क हादसे आदि से होने वाली मृत्यु की दर उन देशों की तुलना में बहुत कम है जहां लोकतंत्र नहीं है। ऐसा ही एक और अध्ययन अमेरिका के मेन्साच्यूट इंस्टीच्यूट आफ टेक्नोलाजी (एमआइटी) ने किया है जिसमें 184 देशों का 1960 से 2010 तक का आंकड़ा शामिल है। इस अध्ययन को प्रोफेसर डेरान एसमोइलू ने किया है। इस अध्ययन का निचोड़ यह है कि चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकारें स्वास्थ्य और शिक्षा पर अधिक खर्च करती हैं।

हम आजादी के 75 साल गुजार चुके हैं। इस दौरान देश ने कई राजनीतिक कलाबाजियां देखी हैं। भारत में लोक जाति-धर्म, भाषा-क्षेत्र-वर्ग आदि समूह को संयुक्त समावेशी इकाई है, जिसमें सह अस्तित्व का उदार भाव सक्रिय रह कर लोक को आधार देता है। जियो और जीने दो हमारे लोकतंत्र का मार्गदर्शी सिद्धांत है। लोक व तंत्र की इसी पृष्ठभूमि में लोगों के बुनियादी सवाल स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और बेहतर जीवन जीने की आकांक्षा को देखना चाहिए। भारतीय लोकतंत्र में जनता की गहरी आस्था के पीछे लोक की सही चाहत और आकांक्षा जुड़ी है। महामारियों और बीमारियों के दौर में जब देश में आर्थिक असमानता चरम पर है तब स्वास्थ्य और उपचार के मौलिक अधिकार तथा राज्य के कर्तव्य बहुत उम्मीद जगाते हैं।

  • भारत में लोक जाति-धर्म, भाषा-क्षेत्र-वर्ग आदि समूह को संयुक्त समावेशी इकाई है, जिसमें सह अस्तित्व का उदार भाव सक्रिय रह कर लोक को आधार देता है। जियो और जीने दो हमारे लोकतंत्र का मार्गदर्शी सिद्धांत है। लोक व तंत्र की इसी पृष्ठभूमि में लोगों के बुनियादी सवाल स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और बेहतर जीवन जीने की आकांक्षा को देखना चाहिए। भारतीय लोकतंत्र में जनता की गहरी आस्था के पीछे लोक की सही चाहत और आकांक्षा जुड़ी है। महामारियों और बीमारियों के दौर में जब देश में आर्थिक असमानता चरम पर है तब स्वास्थ्य और उपचार के मौलिक अधिकार तथा राज्य के कर्तव्य बहुत उम्मीद जगाते हैं।

कोरोना महामारी के लगभग दो साल के अनुभव अब स्वास्थ्य को संविधान में मौलिक अधिकार के रूप में शामिल किए जाने की जोरदार मांग करते हैं। हालांकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन (स्वास्थ्य) और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को सुनिशिचत करता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक डा. टेड्रोस अदनोम घेब्रेयह ने अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस पर अपने संबोधन में कहा था कि सभी लोगों के लिए स्वास्थ्य के अधिकार का मतलब है कि प्रत्येक व्यक्ति की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच हो। स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण से अब यह डर सता रहा है कि धीरे-धीरे स्वास्थ्य और उपचार आम आदमी की पहुंच से दूर होता जाएगा और बहुराष्ट्रीय/राष्ट्रीय कंपनियां स्वास्थ्य और उपचार के क्षेत्र का उपयोग मुनाफा लूटने के लिए करेंगी। इसी कोरोनाकाल में सैकड़ों ऐसे उदाहरण हैं जिसमें लोगों ने अस्पताल के भारी-भरकम बिल को अदा करने में असमर्थता की वजह से खुदकुशी कर ली।

  लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिकों का स्वास्थ्य सरकार की जिम्मेदारी है। लेकिन इसी कोरोनाकाल में देखें तो बजट में मुफ्त कोरोना टीके के प्रावधान के बावजूद केंद्र सरकार ने टीकाकरण की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी थी और यह भी कहा गया था कि राज्य सरकारें अपने कोष से खर्च कर टीका खरीदें। कंपनियों ने कोरोना टीके की दर भी अलग-अलग तय कर रखी थी। केंद्र सरकार के लिए अलग और राज्यों के लिए अलग दर। मगर सुप्रीम कोर्ट ने  फटकार लगाते हुए सरकार को पूरे देश में सभी नागरिकों को मुफ्त टीका उपलब्ध कराने का निर्देश दिया। यह लोकतंत्र की ही ताकत है कि कोरोना संकट के दौर में यहां के नागरिक अपने संवैधानिक अधिकारों की वजह से अपनी जीवन रक्षा कर पा रहे हैं।

यह भी देखा जा रहा है कि सरकार चुनाव में तो जनता से वोट लेती है लेकिन सत्ता में आने के बाद कारपोरेट के हित में काम करती है। उदारीकरण के दौर में जिन विषयों का सबसे ज्यादा निजीकरण हुआ उसमें स्वास्थ्य और शिक्षा सबसे प्रमुख हैं। सरकार कई सार्वजनिक जिम्मेवारियों से मुंह मोड़ रही है। जन कल्याण की अनेक योजनाएं वित्त के अभाव में बंद की जा रही हैं। टीबी उन्मूलन, मलेरिया, कालाजार, खसरा, मस्तिष्क ज्वर आदि जन स्वास्थ्य के रोगों के बचाव व उपचार के बजट कम कर दिए गए हैं। सबको स्वास्थ्य की घोषणा के बावजूद लोग अपने धन से इलाज कराने व दवा खरीदने के लिए मजबूर हैं। विगत दो सालों  में देश के करोड़ों गरीब लोगों ने महज कोरोना के नाम पर उपेक्षा को झेला। ये वे लोग हैं जो दूसरे गंभीर रोगों की गिरफ्त में हैं और विगत दो बरसों से अस्पताल की सुविधा नहीं ले पा रहे क्योंकि अधिकांश अस्पतालों में अन्य रोगोंंं के उपचार का विभाग बंद कर दिया गया था।

यह लोकतंत्र की ही ताकत है कि कई राज्यों में सरकारें जनता के लिए स्वास्थ्य और उपचार की व्यवस्था निशुल्क कर रही हैं। यदि लोकतंत्र का डर सरकारों एवं राजनीतिक दलों को नहीं होता तो कंपनियां कब का पूरे स्वास्थ्य ढांचे को निगल गई होती। क्षेत्रीय स्तर पर उभरे एक राजनीतिक दल ने अपने सुशासन के माडल में चिकित्सा, स्वास्थ्य, बिजली,   पानी, शिक्षा आदि को नागरिकों के लिए मुफ्त उपलब्ध कराना घोषित किया है। लोकतंत्र में लोक कल्याण के लिए ये योजनाएं जरूरी हैं।

About the author

AK Arun

डॉ. एके अरुण देश के प्रख्यात जन स्वास्थ्य विज्ञानी हैं। वे कई पुस्तकों के लेखक और संपादक हैं। साथ ही परोपकारी चिकित्सक भी। वे स्वयंसेवी संगठन ‘हील’ के माध्यम से असहाय मरीजों का निशुल्क उपचार कर रहे हैं। डॉ. अरुण जटिल रोगों का कुशलता से उपचार करते हैं। पिछले 31 साल में उन्होंने हजारों मरीजों का उपचार किया है। यह सिलसिला आज भी जारी है। कोरोना काल में उन्होंने सैकड़ों मरीजों की जान बचाई है।
संप्रति- डॉ. अरुण दिल्ली होम्योपैथी बोर्ड के उपाध्यक्ष हैं।

Leave a Comment

error: Content is protected !!