समीक्षा

क्या भारतीय जेम्स बांड का जन्म हो गया है

अश्रुत पूर्वा II

क्या भारतीय जेम्स बांड जन्म हो गया है। लेखक और वरिष्ठ पत्रकार मुकेश भारद्वाज का उपन्यास ‘मेरे बाद…’ को पढ़ते हुए पहला सवाल यही मन में उठता है। आप बेशक 007 जेम्स बांड के प्रशंसक रहे हों जो तेज रफ्तार में गाड़ियां चलाता है। अपनी पिस्तौल से दुश्मनों पर गोलियां दागता जाता है। जाने कितनी लड़कियां उसकी दीवानी हैं। मगर मेरे बाद का नायक जेम्स बांड से कम नहीं। वह गोली की रफ्तार से अपना काम करता है। देखते ही देखते वह अपनी मंजिल पर पहुंच जाता है। सबसे बड़ी बात कि वह जेम्स की तरह धांय-धांय गोलियां नहीं मारता। वह अपने शब्द वाण से विरोधी पक्ष को परास्त करता है। वह कानून की बारीक जानकारियां भी रखता है।  

इस देसी जेम्स बांड की सबसे खास बात उसका ‘कासानोवा चार्म’ है। यानी वह एक के बाद एक कई महिलाओं पर फिदा होता है। लेकिन वह इटालियन प्लेब्वॉय भी नहीं है। उसके लिए एक माया ही काफी है जिसके पहलू में वह हर रात गुजारना चाहता है। वह दिलफेंक है, फिर भी महिलाओं को उसका अंदाज लुभाता है। यही जादू है और यही जलवा है हमारे देसी बांड में। यही है उसका ‘कासानोवा चार्म’।

कौन है यह देसी जेम्स बांड? हम बात कर कर रहे हैं लेखक मुकेश भारद्वाज के चर्चित उपन्यास ‘मेरे बाद…’  के प्रमुख पात्र अभिमन्यु की जो नोएडा के सेक्टर 44 में 74 साल के बुजुर्ग किशोर वशिष्ठ की आत्महत्या की गुत्थी सुलझाने निकला है। एक ऐसा युवा जासूस जो अपने तर्कों से पुलिस और कानून को इस बात के लिए मजबूर कर देता है कि बुजुर्ग ने आत्महत्या नहीं की, बल्कि अंत समय में उसका इरादा बदल गया था। संभवत: किसी और ने जान ले ली। इस गुत्थी को सलझाने में उसकी दोस्त और पुलिस अधिकारी सबीना सहर मदद जरूर करती है, मगर अभिमन्यु उपन्यास के अंतिम पन्ने तक पीछा करता है। कौन है वो कातिल? यह कौतुहल अंत तक बनी रहती है। लिहाजा पाठक एक के बाद एक अध्याय पढ़ता चला जाता है। ठीक वैसे ही जैसे जेम्स बांड की फिल्म सामने चल रही हो।

कासानोवा चार्म का मालिक है अभिमन्यु। हर खूबसूरत लड़की उसे लुभाती है। चाहे वह पुलिस अफसर सबीना हो या उसके दफ्तर की सहयोगी कली। वैसे जरूरी नहीं कि हर जासूस के लिए स्त्रियां कमजोरी हों, लेकिन वह अभिमन्यु जैसा इंडियन जेम्स बांड हो तो यह निहायत जरूरी हो जाता है।

अभिमन्यु जेम्स बांड की तरह तमाम विदेशी शराब का शौकीन है। यही नहीं उपन्यास में कई पात्र बातों-बातों में शराब इस तरह पीते हैं जैसे हम घर-दफ्तर में चाय पीते हैं। यूं अभिमन्यु भी कम नहीं। वह भी खूब पीता है। मगर अच्छी बात ये है कि वह चाय का भी उतना ही बड़ा रसिया है। वह अकसर उसे चाय देने वाले के प्रति कृतज्ञ हो जाता है। यहां तक कि अपनी खास और बेहद खास दोस्त माया के साथ पल बिताते हुए उसे चाय की तलब लगती है। एक प्रसंग यहां उल्लेखनीय है-

मुकेश भारद्वाज का उपन्यास ‘मेरे बाद…’ के अभिमन्यु से मिलने के बाद जेम्स बांड को रिटायर हो जाना चाहिए। वहीं शरलॉक होम्स और हरक्यूल पायरोट को अपनी पेंशन की जुगाड़ में लग जाना चहिए। और व्योमेश बख्शी भी जैसे तैसे अपना गुजारा कर ही लेंगे। खाकी वर्दी के नीचे उसकी कमीनगी को उघाड़ रहे पंजाब के इस नौजवान जासूस का शर्तिया एलान है कि यह बूढ़े हो गए नायकों की विदाई का समय है।  

उसने उसी पोजीशन में रहते हुए हाथ बढ़ा कर गिलास उठाया। उसका एक बड़ा घूंट भरा और फिर वही गिलास मेरे मुंह को भी लगा दिया। जन्नत का नजारा हो गया था। अचानक मैंने कहा।

‘एक-एक चाय हो जाए?’
‘डैम यू अभि। यह तो मेरी सौतन ही हो गई है। जाओ बना लाओ। तुम मानोगे नहीं।’ उसने कहा।
जिंदगी में इश्क के अलावा मुझे कोई दूसरी अलामत थी तो वह चाय ही थी। गाढ़े दूध में तेज पत्ती और अदरक से महकती हाई कैलोरी चाय। पंजाबी में जिसे कहते हैं, ‘दूध पत्ती ठोक के, मिट्ठा हत्थ रोक के।’

मुकेश भारद्वाज का उपन्यास ‘मेरे बाद…’ के अभिमन्यु से मिलने के बाद जेम्स बांड को रिटायर हो जाना चाहिए। वहीं शरलॉक होम्स और हरक्यूल पायरोट को अपनी पेंशन की जुगाड़ में लग जाना चहिए। और व्योमेश बख्शी भी जैसे तैसे अपना गुजारा कर ही लेंगे। खाकी वर्दी के नीचे उसकी कमीनगी को उघाड़ रहे पंजाब के इस नौजवान जासूस का शर्तिया एलान है कि यह बूढ़े हो गए नायकों की विदाई का समय है। चाय की चुस्कियों के साथ या एकाध पैग मारते हुए हमें भी यह मान लेना चाहिए कि हिंदी साहित्य को एक नया जासूस मिल गया है। अभिमन्यु का सरल हास्य बोध, उसकी सहजता और बेबाकी के पाठक कायल न हों, ऐसा हो नहीं सकता। वह हर किसी से तपाक से मिलता है। लड़कियों को फ्लर्ट करता है, कई बार यह उसके पेशे का हिस्सा होता है, तो कई बार वह जानबूझ कर ऐसा करता है।

उपन्यास  मेरे बाद… वस्तुत: अपराध साहित्य है। एक ऐसा ‘क्राइम फिक्शन’ जो आपको बेचैन कर देता है। यह एक फिल्म की तरह आपकी आंखों के सामने चलता रहता है। कुछ दृश्य स्मृतियों में दर्ज हो जाते हैं। कुछ संवाद याद रह जाते हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह उपन्यास की भाषा शैली है। लेखक खुद एक संपादक हैं जो आम जन की भाषा को साथ लेकर चलने के पक्षधर हैं। यह उनके लेखन में दिखता है। छोटे-छोटे वाक्य। सहज-सरल शब्दों का प्रयोग। अलबत्ता पात्रों के अनुकूल अंग्रेजी वाक्यों का भी उन्होंने भरपूर प्रयोग किया है। हालांकि कुछ पाठकों को यह खटक सकता है। वहीं उर्दू के शब्दों के साथ उनकी गंगा-जमुनी भाषा पाठकों का आद्योपांत रसास्वादन कराती रहती है। उसकी बोधगम्यता दूर तक ले जाती है। पाठक इस उपन्यास को   धारा प्रवाह गति से पढ़ सकते हैं। कातिल को पकड़ने के लिए आप उसके साथ अंत समय तक पीछा कर सकते हैं। अभिमन्यु के साथ आपका दिमाग भी दौड़ता रहता है-आखिर कातिल कौन?

आखिर बुजुर्ग किशोर वशिष्ठ का कौन है कातिल? बेटा प्रबोध, बेटी गुलमोहर या बहू इरा? या दामाद राहुल या कि बुजुर्ग की देखभाल करने वाली रागिनी रहेजा? बुजुर्ग के बेड पर पड़े रूबिक्स क्यूब का क्या था राज। बेहद ही रहस्य और रोमांच से भरा है यह मामला। आप यह जान कर हैरान हो जाएंगे। फिर कौन है कातिल, यह जानने के लिए आपको 272 पन्नों से होकर गुजरना होगा। इसे पढ़ कर पाठक इस उपन्यासकार को एक मील लंबा धन्यवाद जरूर देना चाहेंगे।

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उपन्यास-मेरे बाद…
लेखक- मुकेश भारद्वाज
प्रकाशक- यश प्रकाशन
मूल्य-299 रुपए

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ashrutpurva

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