डॉ. कविता नन्दन II
मै नारायना से आ रहा था जैसे ही ओवरब्रिज के नीचे दाहिने हाथ मायापुरी मोड़ पर मुड़ा, मेरी नज़र अपनी घड़ी पर गई। रात के दस बजकर पांच मिनट हो चुके थे। याद आया आज बेटे का जन्मदिन है और पत्नी ने सुबह ही सावधान किया था कि फैक्टरी से जल्दी निकल जाऊँगा। आज मज़दूरों की सैलरी भी बाँटना था और एकाउंटेंट ने लेन-देन का हिसाब दुरुस्त करने के लिए सीए को बुला लिया था। उन सब के चक्कर में ऑफिस पहुँचते ही यह बात ख़्याल से एकदम उतर ही गई। बीवी बार-बार तंग न करने पाए इसी डर से मैंने फोन स्विच ऑफ कर दिया था। फोन वाली बात जैसे ही याद आई मैंने कार बिलकुल धीमे कर दिया और मोबाइल ऑन करने लगा। दिसम्बर का महीना और दिल्ली की ठंड, उँगलियों ने जैसे काम करना बंद कर दिया हो, स्टेयरिंग तो पूरी कलाई के दम से घुमाना आसान है और गेयर भी हथेली पर जोर लगाकर बदल लिया जाता है लेकिन मोबाइल की ऑन बटन दबाना तो उँगली के पोर का काम है। मैंने कार साइड में खड़ी करके फिर कोशिश किया।
मेरी आँखों के सामने कोहरा घना था। इसीलिए कार स्टार्ट रखे हुए ही मैं बीवी से बात कर रहा था। बात करते हुए मुझे कोहरे में कुछ छाया हिलती-डुलती सी दिखने लगी। मुझे लगा जैसे दो-चार लोग आपस में उलझ रहे हों। मैंने कार को धीरे-धीरे आगे बढ़ाया। मैंने देखा तीन लोग मिलकर दो लड़कियों को मारुती 800 कार में धकेलने की जबरिया कोशिश कर रहे हैं। मेरी कार उनकी कार से ज़्यादा से ज़्यादा अब दस मीटर की दूरी पर थी। यकबयक इतना साफ देखकर मेरे भीतर दहशत सी हुई। उन तीनों में से एक हाथ हिलाकर मुझे वहाँ से चले जाने का इशारा कर रहा था। कुछ ही पलों में परिवार, फैक्टरी और भविष्य को लेकर मेरे दिमाग में तमाम दृश्य नाच गए। यह सोचे बिना कि वह दो लड़कियाँ, उन तीन हट्टे-कट्टे मर्दों से और कितनी देर जूझ सकती हैं, मेरे हाथ-पैर जैसे ठंडे पड़ गए। वह जो मुझे हाथ हिला-हिला कर जाने के लिए इशारा कर रहा था अब दांत भींच कर अनाप-शनाप कुछ बोलता हुआ मेरी कार की ओर बढ़ रहा था। मैं चेतनाशून्य होकर उसे देख रहा था। सामने उपस्थित स्थिति से टकराने के लिए मेरे पास कोई योजना नहीं थी। मैं बस जो हो रहा था उसका मूकदर्शक बन कर कार में बैठा हुआ था।
उसने मेरी कार के शीशे पर मुक्का मारना शुरू किया। मेरी खिड़कियों के शीशे लॉक थे। इसलिए उसकी आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी। सड़क पर इस समय कोई गाड़ी दिखाई नहीं दे रही थी इसलिए कार के शीशे को खोलना मैंने मुनासिब नहीं समझा। इस मोड़ के बाईं ओर सड़क के उस पार इक्यूलिप्टस के पेड़ों का जंगल है जो रात में और घना दिखता है। नौजवानी के दिनों में बहुत मार-धाड़ मैंने किया। वह एक्शन से भरपूर जवानी की बातें मेरे दोस्तों की ज़ुबान से सुनकर किसी बूढ़े में भी जोश आ जाए लेकिन आज जाने क्या हो गया था कि मैं अपने भीतर घबराहट महसूस कर रहा था। मैने अपनी कार का दरवाज़ा नहीं खोला। वह जैसे ही बाईं ओर से दाहिने आने को बढ़ा, मेरा पाँव क्लच से उठ गया और वह इतनी बुरी तरह पीठ के बल गिरा कि उठ न सका। शायद उसके पैरों या सिर में चोट आ गई थी। मैंने जल्दी ही ब्रेक दबा दिया था लेकिन वह चेसिस के नीचे आ गया था। मेरी नज़र सामने के दृश्य पर पड़ी। इक्यूलिप्टस के भीतर से एक लड़की एक लठ्ठा लिए निकली और उसने दनादन उन दोनों मर्दों के सिर पर वार किया। अब वह दोनों उन तीनों लड़कियों से लड़खड़ाते हुए जूझ रहे थे। मैने कार को बैक किया और सौ नंबर डायल कर दिया था। देर लगी फोन उठाने में… पर उठ गया।
आज अख़बार में छपी हुई फोटो देखकर मैंने उसे पहचान लिया। यह फोटो महिला दिवस पर दिल्ली की महिलाओं ने जुलूस निकाला था, उसका था। उस जुलूस का नेतृत्व कर रही लड़की वही लछमीना थी जो उस रात लठ्ठ लेकर आई थी। यह लड़की घटनास्थल के पास ही झुग्गियों में रहने वाली एक फुटपाथिए परिवार की बेटी थी। जनकपुरी डी-ब्लाक के सरकारी स्कूल में बारहवीं की छात्रा है लेकिन आज वह महिलाओं के जुलूस का नेतृत्व कर रही थी। मैं उसकी तस्वीर देखकर मुस्कुरा रहा था। एक लड़की की ज़िंदगी में तीन महीने के भीतर इतना बड़ा बदलाव, सचमुच किसी छलांग से कम नहीं है।
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