अभिप्रेरक (मोटिवेशनल)

वर्जनाओं से परे भी है जिंदगी

फोटो: साभार गूगल

मनस्वी अपर्णा II

हिंदुस्तान के बारे में जब भी सोचती हूं तो कुछ वजहों से मुझे हमेशा ही एक आश्चर्य मिश्रित खुशी होती है। मैं जब भी इस देश की भौगोलिक स्थिति, वातावरण, ऋतुएं और इतने विभिन्न तरह के आचार, विचार, बोली-भाषा, धर्म-संस्कृति वाले लोगों के बारे में खयाल करती हूं तो मेरा मन आह्लाद से भर उठता है, ये एक ऐसा देश है जहां सब ऋतुओं का आनंद लिया जा सकता है। हम एक ही देश की भौगोलिक सीमा में पर्वत, सागर, मरुथल और मैदान इन सब के पर्यटन का आनंद ले सकते हैं, कुछ एक किलोमीटर पर बदल जाने वाली बोली और भोजन का आनंद ले सकते हैं। विभिन्न धर्म और संस्कृतियों को गहराई से देख समझ सकते हैं। बचपन में बस सुन कर याद रहा वाक्य-अनेकता में एकता, आज मुझे किसी सूत्र वाक्य की तरह जान पड़ता है। सच में कई मायनों में हम एक अद्भुत देश के वासी है।

लेकिन कुछ मामले ऐसे भी हैं जिनके बाबत जब भी मैं सोचती हूं तो एक गहरी निराशा और खिन्नता मन पर छा जाती है। तब ये भाव गहन होने लगते हैं कि किस जगह पर, किन लोगों के बीच में रह रही हूं…। फिर ये तुलना भी उठती है मन में कि जो देश इतना अच्छा लगता है वो बुरा कैसे हो सकता है…? इस विचार के साथ ही मेरा निजी तर्क ये कहने लगता है कि जो कुछ भी ईश्वर रचित इस भूभाग को हासिल हुआ है, वह सब सच में अद्वितीय है, और जो कुछ भी मानव निर्मित है वह सब बहुत हद तक दुखदायी है।

मैं अपना मंतव्य और बात को और स्पष्ट करती हूं। सौभाग्य से हम एक ऐसे देश में बसते हैं जहां भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधताएं कहीं और नहीं मिलतीं। ये बेमिसाल हैं। वहीं दुर्भाग्य से हम एक ऐसे देश में बसते हैं जहां  अनेकानेक वर्जनाएं और कुप्रथाएं ऐसी हैं कि हमारा बतौर मनुष्य दम घुट जाता है। हम एक ऐसे समाज में जीने को मजबूर हैं जो हमारी प्रत्येक सहज इच्छा का, हमारे सुख के गिने-चुने कारणों का, हमारी आत्यंतिक निजता का दमन करता है, हनन करता है, प्रतिक्रमण करता है।

हमको जो भी खुश होने के कारण मालूम होते हैं वे सब हमारे यहां वर्जित हैं। जैसे उत्सव और मद्यपान बड़ा पुराना नाता है अगर आप पढ़ेंगे तो आपके शास्त्रों और पुराणों में सोम का जगह-जगह पर वर्णन है। जब भी हम खुश होते हैं तो सुरूर में डूबना चाहते हैं और इसमें कुछ गलत या अजीब है ही नहीं। दुनिया भर के तनाव, चिंताओं और दुखों से फौरी राहत के लिए सोमरस का पान बड़ी सामान्य सी बात है और ये भी उतना ही सच है कि यदि उत्सव के माहौल में हैं तो आपको ज़रा सा खुद को शिथिल करना ही होगा, नहीं तो सारे आयोजन बस यंत्रवत होकर रह जाएंगे और वर्तमान हालात में मनुष्यता को खुद को जरा सा शिथिल करने के लिए ऐसा चाहे तो हमारा समाज  नाराज होता हैं, उनके नियम-कानूनों को इससे ठेस पहुंचती हैं क्योंकि उनको तने हुए लोग चाहिए जो कुछ भी सोचने समझने में सक्षम न हों बस तय दिशा निर्देशों का पालन करते हुए अपना जीवन किसी तरह मौत की प्रतीक्षा में बिता दें।

हम एक ऐसे देश में बसते हैं जहां भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधताएं कहीं और नहीं मिलतीं। ये बेमिसाल हैं। वहीं दुर्भाग्य से हम एक ऐसे देश में बसते हैं जहां अनेकानेक वर्जनाएं और कुप्रथाएं ऐसी हैं कि मनुष्य का दम घुट जाता है। हम एक ऐसे समाज में जीने को मजबूर हैं जो हमारी प्रत्येक सहज इच्छा का, हमारे सुख के गिने-चुने कारणों का, हमारी आत्यंतिक निजता का दमन करता है, हनन करता है, प्रतिक्रमण करता है।

फोटो: साभार गूगल

दूसरा सबसे अहम एतराज होता है हमारे आपसी संबंधों पर। यह बहुत ही सहज है कि किसी लड़के या लड़की के बीच या स्त्री और पुरुष के बीच आकर्षण होगा ही, उनको एक दूसरे का साथ अच्छा लगेगा। दोनों अपना मन एक दूसरे से बांटना चाहेंगे। दोनों सहचर्य के आनंद से भरना चाहेंगे। दोनों प्रेम में डूबना चाहेंगे, लेकिन समाज को इससे सख्त एतराज होगा। एक मॉरल पोलिसिंग सदा ही यह निश्चित करती हुई घूमेगी कि कोई किसी से मिल तो नहीं रहा? प्रेम तो नहीं कर रहा? कोई सहचर्य का आनंद तो नहीं उठा रहा? अगर ऐसा कर रहा है तो तुरंत उसके खिलाफ लामबंद हुआ जाए। उसको रोका जाए। प्रताड़ित किया जाए। क्योंकि हमको खुश, संतुष्ट और आनंदित लोग नहीं चाहिए हमको तो रात दिन रोते हुए, खिन्न लोग चाहिए जिनको प्रथाओं और वर्जनाओं के नाम पर दमित कर भेड़ों की तरह हांका जा सके।

ये सब दमित चित्त के लक्षण हैं और कुछ भी नहीं, और एक दमित चित्त ही पर-पीड़ावादी होने में रस लेता है। दरअसल, हम इतने पर-पीड़ावादी हैं ही। इसलिए हमने अपनी परंपराओं और प्रथाओं के नाम पर जीने के सब रास्ते बंद कर लिए हैं, हम यूनिफार्मिर्टी के चक्कर में वैयक्तिक निजता का महत्व और उसका सुख भूल गए हैं। ऐसे में कोई यदि अपने होने की घोषणा करता है और अपना जीवन अपने आनंद में बिताना चाहता है तो हमको चोट लगती है। हमारा अहंकार धूल धूसरित होता है। हमारी पीड़ा गहन होने लगती है क्योंकि ये सब कुछ हम भी चाहते थे लेकिन कर नहीं पाए कुछ तो कम हिम्मत के कारण, कुछ समाज से मिल रहे झूठे प्रोत्साहन के लोभ में।

कुल मिला कर अब हम उस जगह पर पहुंच गए हैं जहां हमारी प्राथमिकताएं रोटी, कपड़ा, मकान से ऊपर उठ गई है और इसी के साथ यह भी जरूरी हो गया है कि हम व्यक्ति की निजता का सम्मान और उसकी स्वतंत्रता का समादर करना सीख लें। नई पीढ़ी बहुत सी वर्जनाओं से बाहर है, लेकिन ये विद्रोह कितना स्थायी है, इसका कुछ ठीक ठीक पता नहीं। बेहतर तो ये होगा कि इससे पहले कि कुछ प्रथाओं के विद्रोह में हमारी नई पीढ़ियां कोई खुद पर उल्टा सीधा आचरण लादने लगे इससे पहले ही हम बदलाव की नई बयार ले आने में सक्षम हो सकें तो इस दुनिया को हमारी ओर से बेहतरीन तोहफा होगा।

About the author

मनस्वी अपर्णा

मनस्वी अपर्णा ने हिंदी गजल लेखन में हाल के बरसों में अपनी एक खास पहचान बनाई है। वे अपनी रचनाओं से गंभीर बातें भी बड़ी सहजता से कह देती हैं। उनकी शायरी में रूमानियत चांदनी की तरह मन के दरीचे पर उतर आती है। चांद की रोशनी में नहाई उनकी ग़ज़लें नीली स्याही में डुबकी ल्गाती है और कलम का मुंह चूम लेती हैं। वे क्या खूब लिखती हैं-
जैसे कि गुमशुदा मेरा आराम हो गया
ये जिस्म हाय दर्द का गोदाम हो गया..

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