सर्वेश्वर दयाल सक्सेना II
कुछ देर और बैठो-
अभी तो रोशनी की सिलवटें हैं
हमारे बीच।
शब्दों के जलते कोयलों की आंच
अभी तो तेज होनी शुरू हुई है
उसकी दमक।
आत्मा तक तराश देने वाली
अपनी मुस्कान पर
मुझे देख लेने दो
मैं जानता हूं
आंच और रोशनी से
किसी को रोका नहीं जा सकता
दीवारें खड़ी करनी होती हैं।
ऐसी दीवार जो
किसी का घर हो जाए।
कुछ देर और बैठो-
देखो पेड़ों की परछाइयां तक
अभी उनमें लय नहीं हुई हैं
और एक-एक पत्ती
अलग-अलग दीख रही है।
कुछ देर और बैठो-
अपनी मुस्कान की यह तेज़ धार
रगों को चीरती हुई
मेरी आत्मा तक पहुंच जाने दो
और उसकी एक ऐसी फांक कर आने दो
जिसे मैं अपने एकांत में
शब्दों के इन जलते कोयलों पर
लाख की तरह पिघला-पिघला कर
नाना आकृतियां बनाता रहूं
और अपने सूनेपन को
तुमसे सजाता रहूं।
कुछ देर और बैठो-
और एकटक मेरी ओर देखो
कितनी बर्फ मुझमें गिर रही है।
इस निचाट मैदान में
हवाएं कितनी गुर्रा रही हैं
और हर परिचित कदमों की आहट
कितनी अपरिचित और हमलावर होती जा रही है।
कुछ देर और बैठो-
इतनी देर तो ज़रूर ही
कि जब तुम घर पहुंच कर
अपने कपड़े उतारो
तो एक परछाईं दीवार से सटी देख सको
और उसे पहचान भी सको।
कुछ देर और बैठो
अभी तो रोशनी की सिलवटें हैं
हमारे बीच।
उन्हें हट तो जाने दो-
शब्दों के इन जलते कोयलों पर
गिरने तो दो
समिधा की तरह
मेरी एकांत
समर्पित
खामोशी!
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