कविता काव्य कौमुदी

यह लोग कविताएं क्यों नहीं लिखते

अजय कुमार II

कभी
आपने सोचा है
ये पूंजीपति
ये सरमायेदार लोग
कविताएं क्यों नहीं लिखते
इनकी कोमलताएं आखिर
कैसे प्रस्फुटित होती हैं
किन आसमानो में उड़ाते हैं ये
अपने उदास दिलों की पतंगें
इनकी खीज इनका गुस्सा
किन चीजों को
अपना प्रतीक बना कर
उतरता है

शायद कारखानों में
बढ़ता उत्पादन ही इनकी
रची कविताएं हैं
इनके कमरों की दीवारों पर लगे
बरस दर बरस बढ़ते
मुनाफों के टंगे ग्राफ
ही इनकी कल्पनाओं का
आसमान है
उस पर ऊंची चढ़ती
वक्र रेखा ही इनके
दिल की पतंग है
ये अपना गुस्सा अपनी उदासी
अपनी खीज शायद
अपने मातहतों पर निकालते हैं

हम कवियों की जमात
शायद पिटे पिटाये
फटीचर लोगों की जमात है
जो अपनी जिन्दगियों में
कहीं पंहुच नहीं पाए और
यदि कहीं पहुंचे भी हैं
तो भीतर बहुत अहसासे कमतरी है
जो गाहे बेगाहे इन लफ्जों में
ढल ढल कर कविताओं में निकलता है
जो हमारे गुस्से
हमारी खीज
हमारे गमों के ताप को
कुछ कम करता है
हम हैं शायद
अपने अपने पिंजरों में कैद
सलाखों को चोंच मारते बेबस परिन्दे ।

About the author

अजय कुमार

अजय कुमार

निवासी -अलवर ,राजस्थान

स्वतंत्र लेखन
प्रकाशित पुस्तक -'मैंडी का ढाबा' (कहानी-संग्रह )

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