व्यंग्य (गद्य/पद्य) हास्य-व्यंग्य

रे गंधी मति अंध तू अतर दिखावत काहे

डाॅ.यशोधरा शर्मा II

उस दिन अपने बाबू जी की ‘कविता घर’ लेकर, जो अभी प्रकाशित हुआ था, अपने एक परिचित जो मेरी दृष्टि में बहुत विद्वान, बुद्धिजीवी, साहित्य में रुचि रखने वाले लगते थे, को देने गयी। उन्होंने बड़ी आत्मीयता से मुस्कुराकर पुस्तक को देखे बिना ही कहा ”अच्छा बताइए हम अपने पुस्तकालय के लिए कितनी ले लें और कितना पैसा आपको दे दें?”

मन एकदम व्यथित हो गया। यह भी नहीं देखा कि मैंने पुस्तक उपहार स्वरूप, सुन्दर सी लिखावट से लिख कर उनको भेंट दी है। मुझे तो उन्होंने अर्थलोलुप ही समझ लिया था शायद ! बहुत पछतावा हुआ कि कहाँ मति अंध के पास आ गयी!

अपनी रुचि के अनुसार कई सामाजिक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े होने के कारण समय-समय पर जाती रहती हूँ। मेरी एक सहकर्मिणी ने पूछा ‘आप ये जो जाती रहती हैं इधर-उधर इसका पेमेन्ट आपको मन्थली मिलता है या दैनिक?’ मैं स्तब्ध रह गयी, अपना सिर पीटने का मन हुआ इस मति अंध को क्या समझाऊँ?

हास्य की समझ या अंग्रेजी में कहें सेन्स ऑफ ह्यूमर की समझ हर किसी को नहीं होती। अपनी कुशल बुद्धि से हास्य को समझे बिना अर्थ का अनर्थ कर देते हैं। ‘कहेंगें खेत की, समझेगें खलिहान की। ‘

हास्य-व्यंग्य गोष्ठी का निमंत्रण-पत्र आया। होली के अवसर पर इन महोदया ने देख लिया और पूछा ‘क्या होता है यह हास्य-व्यंग्य ? क्या करेंगी? समझा दिया। ‘अच्छा चुटकुले सुनाएंगे, आप भी सुनाएंगी’ अरे अखबार में आज ही निकले हैं लतीफुल्ले ले जाइए सुनाने के लिए।’ अब क्या करें इनके इस परामर्श का! छोटे-छोटे रससिक्त आनन्द इनकी मति से परे है।

बारिश की फुहारों में भीगने के आनन्द की दो क्षण में धज्जियाँ  उड़ा देते हैं। मत भीगो जुकाम हो जाएगा। अरे भाई होगा तो हो बारिश कब हर दिन आती है। हमारे पार्क क्लब की सदस्या की सुन लीजिए। बात हो रही थी पुस्तक पढ़ने की उनकी रुचि निन्दा रस में ही रहती है। इस पुस्तक चर्चा से उनको उकताहट सी हो रही थी। मैंने किसी प्रसंग में कह दिया कि वह पुस्तक तीन दिन में पढ़ ली थी। वह उछलकर उत्साहित स्वर मे बोली ‘गीता, रामायण’ मैंने कहा उपन्यास, कहानियाँ। उन्होंने कड़वा मुँह बनाकर हिकारत और उपेक्षा से देखा कि मेरे जैसा गया बीता कोई नही होगा और कहती है ‘तुम्हे कोई रोकता नहीं उपन्यास पढ़ने से’ केवल मौन धारण करने के सिवाय कोई विकल्प ही नहीं था।

ऐसे न जाने कितने मतिअंध फैले पड़े हैं जिनको कुछ बताने वाला उत्साहहीन हो जाता है। ये बस धन उपार्जन को ही श्रेष्ठ समझते हैं, निन्दा रस में रुचि रखते हैं। इन जैसे मतिअंधो के लिए ही कविवर बिहारी लाल ने कहा है कि ‘इत्र विक्रेता मूर्खों के गाँव में पहुँचा और इत्र दिखाया तो मति अंधों ने उसको चख लिया कि बहुत मीठा है’।

कर फुलैल कौ आचमन मीठो कहत सराहै, रे गंधी मति अंध तू अतर दिखावत काहे ।

साभार: पुस्तक ‘बिम्ब प्रतिबिंब‘ से

About the author

डॉ यशोधरा शर्मा

जन्म: ऐतिहासिक नगरी, आगरा

शिक्षा: एम.ए.,पी.एच.डी., हिन्दी साहित्य विषय

अभिरूचियाँ : लेखन, पठन, शास्त्रीय संगीत विशेषकर नृत्य, पाक, कला, बागवानी, गृह सज्जा

संप्रति : शिक्षिका पद से निवृत्त होकर बैंगलुरू में साहित्य सेवा

सम्पर्क: शान्ति निकेतन, व्हाइट फील्ड, बैंगलुरू।

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