काव्य कौमुदी ग़ज़ल/हज़ल

दिल में प्यार रखता हूँ

शिवम द्विवेदी ‘सहर’ II

कलम  कहते हैं जिसको मैं भी वो तलवार रखता हूँ
मैं ज़ालिम हुक्मरानों के लिये अश’आर रखता हूँ

किसी सच्ची ख़बर की कोई क्या उम्मीद मैं रक्खूँ
जो पहले बिक चुका कमरे में वो अखबार रखता हूँ

नहीं मिलता है जब बोसा मिरे ही यार से मुझको
तो अक्सर उसके होंटों पर मैं खुद रुखसार रखता हूं

भले मुझसे छुपा लो  राज़ गहरे तुम  मगर जानां
किताबे ज़िन्दगी के,कुछ तो मैं असरार रखता हूँ

हुआ करती हैं तकरारें “सहर” रिश्तों में  बाहम ही 
मैं लहज़ा सख्त रखता हूँ तो दिल मे प्यार रखता हूँ

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शिवम द्विवेदी 'सहर'

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