संजय स्वतंत्र II
सागर की उफनती लहरों को
छूकर मैंने उस दिन
रच दिया था तुम्हारे ललाट पर
एक जल-बिंदु और
अनायास ही बोल पड़ा-
आज से मैं और तुम
हो गए हम।
उस जल-बिंदु की शीतलता
के साथ भांप गई थी तुम
हमारे अजन्मे-अनाम
रिश्ते की गरमाहट।
तुम्हारे माथे पर सूरज की
झिलमिलाती किरणें
उस नन्हें से जल-बिंदु
में दे रही थीं
एक सिंदूरी अहसास।
मेरी इस मासूम सी हरकत से
सहम गई थी तुम,
लेकिन अगले ही पल
दमक उठा था
तुम्हारा गुलाबी चेहरा
नवेली दुलहन की तरह।
रेत पर मेरा नाम लिखते हुए
तुमने पूछ ही लिया था-
कितनी दूर साथ चलोगे?
जवाब में मैंने-
तुम्हारे माथे को चूम लिया था
और तुम्हारी हथेलियों में
अंजुरी भर जल भरते हुए
कहा था-
इस पार मिलो या उस पार,
सागर की लहरों की तरह
न उठूंगा न गिरूंगा,
मैं चलूंगा समय के साथ
चलता ही रहूंगा मैं
तुम्हारे साथ-साथ।
सुबह की हर लाली में
उम्मीद की किरण बन
तुम्हारे मन के आकाश में
भरता रहूंगा सबरंग।
मुझे नहीं पता
चुटकी भर सिंदूर में
कितनी होती है ताकत,
लोग कितना चलते हैं साथ
मगर तुम्हारे ललाट पर
मेरा रचा जल-बिंदु
सच में लैम्प पोस्ट है
हमारी अनंत यात्रा का,
वही राह दिखाएगा कि
हमारी मंजिल अभी और
कितनी है दूर…।