कविता काव्य कौमुदी

प्रेम का लैम्प पोस्ट

संजय स्वतंत्र II

सागर की उफनती लहरों को
छूकर मैंने उस दिन
रच दिया था तुम्हारे ललाट पर
एक जल-बिंदु और
अनायास ही बोल पड़ा-
आज से मैं और तुम
हो गए हम।

उस जल-बिंदु की शीतलता
के साथ भांप गई थी तुम
हमारे अजन्मे-अनाम
रिश्ते की गरमाहट।
तुम्हारे माथे पर सूरज की
झिलमिलाती किरणें
उस नन्हें से जल-बिंदु
में दे रही थीं
एक सिंदूरी अहसास।

मेरी इस मासूम सी हरकत से
सहम गई थी तुम,
लेकिन अगले ही पल
दमक उठा था
तुम्हारा गुलाबी चेहरा
नवेली दुलहन की तरह।
रेत पर मेरा नाम लिखते हुए
तुमने पूछ ही लिया था-
कितनी दूर साथ चलोगे?

जवाब में मैंने-
तुम्हारे माथे को चूम लिया था
और तुम्हारी हथेलियों में
अंजुरी भर जल भरते हुए
कहा था-
इस पार मिलो या उस पार,
सागर की लहरों की तरह
न उठूंगा न गिरूंगा,
मैं चलूंगा समय के साथ
चलता ही रहूंगा मैं
तुम्हारे साथ-साथ।

सुबह की हर लाली में
उम्मीद की किरण बन
तुम्हारे मन के आकाश में
भरता रहूंगा सबरंग।

मुझे नहीं पता
चुटकी भर सिंदूर में
कितनी होती है ताकत,
लोग कितना चलते हैं साथ
मगर तुम्हारे ललाट पर
मेरा रचा जल-बिंदु
सच में लैम्प पोस्ट है
हमारी अनंत यात्रा का,
वही राह दिखाएगा कि
हमारी मंजिल अभी और
कितनी है दूर…।

About the author

संजय स्वतंत्र

बिहार के बाढ़ जिले में जन्मे और बालपन से दिल्ली में पले-बढ़े संजय स्वतंत्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई की है। स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद एमफिल को अधबीच में छोड़ वे इंडियन एक्सप्रेस समूह में शामिल हुए। समूह के प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक जनसत्ता में प्रशिक्षु के तौर पर नौकरी शुरू की। करीब तीन दशक से हिंदी पत्रकारिता करते हुए हुए उन्होंने मीडिया को बाजार बनते और देश तथा दिल्ली की राजनीति एवं समाज को बदलते हुए देखा है। खबरों से सरोकार रखने वाले संजय अपने लेखन में सामाजिक संवेदना को बचाने और स्त्री चेतना को स्वर देने के लिए जाने जाते हैं। उनकी चर्चित द लास्ट कोच शृंखला जिंदगी का कैनवास हैं। इसके माध्यम से वे न केवल आम आदमी की जिंदगी को टटोलते हैं बल्कि मानवीय संबंधों में आ रहे बदलावों को अपनी कहानियों में बखूबी प्रस्तुत करते हैं। संजय की रचनाएं देश के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

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