अभिप्रेरक (मोटिवेशनल)

देने का जो सुख है, वह सबसे बड़ा

मनस्वी अपर्णा II

मेरे अब तक के जीवन का अनुभव यह कहता है कि जब भी मैंने किसी को कुछ दिया है, चाहे वह कितनी ही छोटी चीज क्यों न रही हो, या बस एक मुस्कान ही क्यों न रही हो, उस क्षण मेरे मन ने अद्भुुत विस्तार पाया है, मुझे जो खुशी मिली है उसका बयान मुमकिन नहीं है, दरअसल हमको ऐसा लगता है कि हमारे पास धन या वस्तुएं जितनी ज्यादा से ज्यादा होंगी हमको उतनी ही खुशी हासिल होगी, लेकिन ऐसा होता नहीं है। ये बिलकुल विपरीत कीमिया है, हम जब भी सच्चे अर्थों में कुछ देते हैं उस क्षण विशेष में हमारी पूरी भावदशा परिवर्तित हो जाती है, हालांकि यह भी सच है कि ये अनुभूति सिर्फ उन्हीं को हो सकती है जो स्वभाव से उदार हैं, किसी कृपण के लिए कुछ भी दे पाना बहुत कष्टप्रद होता है।

साधारणत: हम मनुष्य संग्रह की प्रवृत्ति रखते हैं, अपनी चीजों को जोड़ कर रखना और उनको यथासंभव खर्च होने से बचाए रखना हम सबकी एक ऐसी आदत है जो हम में अनजाने ही विकसित हुई है, हम सबके लिए अपने आधिकार की चीजें, धन, संपत्ति यहां तक व्यक्ति को भी पास बनाए रखना अहम होता है। ऐसा क्यों होता है, इसका मनोविज्ञान हमको इवोल्यूशन थ्योरी में मिलता है। अपने शुरुआती दिनों में मनुष्य कठिन से कठिन संघर्ष के बाद अपने लिए भोजन और सुरक्षित स्थान का इंतजाम कर पाता था और इस संघर्ष के मद्देनजर ही उसमें संग्रह की प्रवृत्ति विकसित होती गई जो जीवन अपेक्षाकृत आसन होने के बाद भी बनी रही और पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होती रही है।

  • साधारणत: हम मनुष्य संग्रह की प्रवृत्ति रखते हैं, अपनी चीजों को जोड़ कर रखना और उनको यथासंभव खर्च होने से बचाए रखना हम सबकी एक ऐसी आदत है जो हम में अनजाने ही विकसित हुई है, हम सबके लिए अपने आधिकार की चीजें, धन, संपत्ति यहां तक व्यक्ति को भी पास बनाए रखना अहम होता है। ऐसा क्यों होता है, इसका मनोविज्ञान हमको इवोल्यूशन थ्योरी में मिलता है।

यही वजह है कि आज सहूलियत से और बहुतायत में उपलब्ध होने के बावजूद संग्रह की हमारी प्रवृत्ति बनी हुई है। मेरे एक मित्र हमेशा ये कहते हैं कि इस दुनिया में सारे संघर्षों की जड़ उत्पादन का असमान वितरण है। वर्ग संघर्ष और जातिवाद भी इसी की देन है प्रत्येक व्यक्ति शक्ति चाहता है ताकि दूसरों पर शासन कर सके और शासन के लिए उस अतिरेक को अपने पास संग्रहित रखना बहुत जरूरी होता है। बहरहाल, मैं समझती हूं कि जैसे-जैसे हमारी नस्ल और विकसित होती जाएगी हम ऐसे बहुत से ऐसे प्रपंचों से आजाद होते जाएंगे।

तो आपके पास जो कुछ भी सकारात्मक है उसे बांटिए, धन, विद्या, कौशल, खुशी, वक्त या प्रेम …यकीनन आपको कुछ ऐसा मिलेगा जिसकी अनुभूति आपको भीतर तक भर जाएगी, लेकिन ये एहतियात भी रखिए कि जो कुछ भी आप किसी को दे रहे हैं वो किसी सूरत में वापस न लेना पड़े, न ही कोई ऐसा मौका आए जब आपने कुछ दिया हो उसे मांगना पड़ जाए। यह स्थिति सच में बहुत दुखदायी होती है, इसलिए देते वक्त ही ये सोच लीजिए कि जो कुछ भी आप दे रहे हैं वो पूरा दे पाएंगे या नहीं? चीजों के मामले में तो स्थिति फिर भी ठीक रहती है लेकिन भावनाओं के स्तर पर ये जरा सा दुखदायी होता है। तो देने का सुख लीजिए ये एक ऐसा अहसास है जो शब्दातीत है। रहीम ने इस संदर्भ में अद्भुत दोहा कहा है-
देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन।
लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन॥

ये बात सच है और इसकी पुष्टि हाल ही में हम से विदा लेने वाले बिगबुल राकेश झुनझुनवाला भी कर गए हैं वो अपनी मस्तमौला जीवनशैली के अलावा अपने द्वारा दिए जा रहे दान के लिए भी जाने जाते रहे हैं और इस संदर्भ में उनका स्पष्ट कथन है कि जो कुछ भी मैं कर रहा हूं इसका मैं सिर्फ माध्यम हूं। ये कर कोई ही रहा है। तो बांटिए और उस सुख को महसूस कीजिए जो सिर्फ देने पर ही मिलेगा।

About the author

मनस्वी अपर्णा

मनस्वी अपर्णा ने हिंदी गजल लेखन में हाल के बरसों में अपनी एक खास पहचान बनाई है। वे अपनी रचनाओं से गंभीर बातें भी बड़ी सहजता से कह देती हैं। उनकी शायरी में रूमानियत चांदनी की तरह मन के दरीचे पर उतर आती है। चांद की रोशनी में नहाई उनकी ग़ज़लें नीली स्याही में डुबकी ल्गाती है और कलम का मुंह चूम लेती हैं। वे क्या खूब लिखती हैं-
जैसे कि गुमशुदा मेरा आराम हो गया
ये जिस्म हाय दर्द का गोदाम हो गया..

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