अजय कुमार II
1. इंतजार
इंतज़ार मुझे
पतझड़ के उस
पेड़ की तरह लगता है
हवा के आमंत्रण पर
जिसके पत्ते गिरते रहते हैं
और कोई उन्हें चुपचाप
गिनते रहता है।
2. मन
एक तार पर फैलाये हुए
गीले कपड़ों सा है
शायद यह मन
जो कभी नहीं सूखता
रोज धूप आए
लाख मौसम बदले
हरदम कुछ सीला-सीला है रहता।
3. उम्र
एक तेज फुरतीली
गिलहरी की तरह उम्र
वक्त हर मुश्किल दीवार
चढ़ रही है
और उसी दीवार पर
रोज एक धूप
दरजा दरजा उतर रही है
4. वे दिन
वे दिन
बांसों के झुरमुट के
पार से आती
एक बांसुरी की
कभी पास आती
कभी दूर जाती
एक धीमी सी है आवाज़
रोज भुलावे में रखती है
सोचता हूं शायद
वो मुझे अब भी याद करती है
5. जिंदगी
जैसे
एक बहती हुई नदी
सोख लेती है दिन भर की धूप
जैसे फंसी रह जाती है
दरख्तों के पैकर में
आख़िर में एक शाम
जिंदगी यूं बीत रही है
इत्र की एक शीशी सी
क्रमशः रीत रही है।