कविता काव्य कौमुदी

दुख और पैमाने 

ज्योति सिंह II

एक ने कहा दुःखी हूं 
दूसरे नें कहा मैं बहुत दुःखी हूं
तीसरे ने कहा मैं सबसे ज्यादा दुखी हूं
दुःख के बोझ तले दबा एक चुपचाप है,
एक दुःख की गठरी सर पर रख 
पतली पगडंडियों पर चलते ,फिसलते आगे बढ़ता है
सोचती हूं किसका दुःख अधिक है…?
किसकी पीड़ा ज्यादा मारक है…?
इसका कोई पैमाना भी है क्या…?

शायद हम दुःख या पीड़ा से कहीं अधिक
मन में गढ़े दुःख के अस्तित्वहीन मलबे से दुखी होते हैं
उम्मीदों, कृत्रिम आवरणों और महत्वाकांक्षाओं
को दुःख बढ़ाने को आमन्त्रित करते हैं….

अपने जीवन के सारे रंगों को किनारे कर
एक गहरे अंधेरे रंग का जितना बड़ा वृत्त बनाते हैं 
मन में दुःख का बोझ उतना अधिक होता जाता है
हम उसी धुरी पर चक्कर काटते हैं,
शायद यही होते होंगे दुःख के पैमाने…
दुःखों को जितना महत्व,उतना उनका वज़न 

फोटो साभार: गूगल

२- सूर्य 

निहारना उसका उदय 
अनिमेष
जो हो शाश्र्वत अटल
अपने मन्तव्यों से ध्रुव
अनुनय कर साध लेना
उसका कण भर तेज
कि न टिक सके
किसीका अहम या
कोई क्षुद्र मन….

देना अर्घ्य उसी को
जिसकी रश्मियों से
जागृत होती हैं कलियां
कलरव करते हैं खग विहग
पा लेना उसके प्रकाशपुंज से 
उज्ज्वलता
कि जब बुझने लगे मन की लौ
अंधेरे करने लगे अजब शक्ल 
अख्तियार
तो तुम्हारा हांथ थाम 
पार करा दे,दर्द की डेहरी…

बस उसी के आगे 
झुका देना अपना सर
कृतज्ञता से
बहा देना अपने आंसू
व्यक्त कर देना अपना मन
कर लेना उसका आलिंगन
कि एकाकार हो सकें 
हृदय के स्पंदन….
पा लेना अपना आदित्य
एक बाहर और एक मन के आकाश में…

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