शुभ्रा सिंह II
हर मौन स्वीकारोक्ति नहीं होती
उनमें प्रस्फुटित होती है
विद्रोह के विध्वंस भी
सुलगती आत्मचेतना भी
जो करती है अदृश्य आत्महत्या
पर तुम्हें क्या?
तुमने तो परिपाटी बना दी है न
इन्द्र के कृत्य से
अभिक्षिप्त सी
कुछ समझने से पहले ही
अपराधी घोषित कर दी जाती हूं
और
उस निर्जन वन में एकांत की पीड़ा के संग
चल देते हो न्याय का दर्म लिए
मेरे मौन को ही स्वीकारोक्ति मान लिया
नहीं वो स्वीकारोक्ति नहीं थी मेरी
मान मर्दन हुआ था मेरा
छली गयी थी
तन के संग मन भी तो कुचला था
इस आत्मवेदना से निकल पाना संभव था भला
कुछ समझने से पहले ही
स्त्रीत्व के हरण ने
विक्षीप्त सी
आशापूर्ण नैनों से देख रही थी
मेरे हाहाकार को शांत कर
काश पहले मेरे मन के
कोलाहल को शांत किया होता
आर्तनाद हृदय को
प्रेम के पारावर से भरा होता
इतना भी नहीं तो
करूणा के कुछ बुंदे ही
छलकाई होती
पर नहीं
क्रोध के आवेग में
मेरे मौन को स्वीकारोक्ति मान
अपराधी घोषित कर
दंड का निर्णय दे दिया
और उस भयानक वन में
अकेला छोड़ दिया
अचेतन से चेतन तक आने में
युगों लग गये
पर अब तक अपना
अपराध जाने बिना
प्रायश्चित की प्रतिमूर्ति बनी
पाषाण शिला प्रतीक्षारत है
राम के आने की
पर हां अब भी कहूंगी
मेरा मौन मेरी स्वीकारोक्ति नहीं थी
नहीं थी मेरी स्वीकारोक्ति।