कविता काव्य कौमुदी

स्वीकारोक्ति

शुभ्रा सिंह II

हर मौन स्वीकारोक्ति नहीं होती
उनमें प्रस्फुटित होती है
विद्रोह के विध्वंस भी
सुलगती आत्मचेतना भी
जो करती है अदृश्य आत्महत्या
पर तुम्हें क्या?
तुमने तो परिपाटी बना दी है न
इन्द्र के कृत्य से
अभिक्षिप्त सी
कुछ समझने से पहले ही
अपराधी घोषित कर दी जाती हूं
और
उस निर्जन वन में एकांत की पीड़ा के संग
चल देते हो न्याय का दर्म लिए
मेरे मौन को ही स्वीकारोक्ति मान लिया
नहीं वो स्वीकारोक्ति नहीं थी मेरी
मान मर्दन हुआ था मेरा
छली गयी थी
तन के संग मन भी तो कुचला था
इस आत्मवेदना से निकल पाना संभव था भला
कुछ समझने से पहले ही
स्त्रीत्व के हरण ने
विक्षीप्त सी
आशापूर्ण नैनों से देख रही थी
मेरे हाहाकार को शांत कर
काश पहले मेरे मन के
कोलाहल को शांत किया होता
आर्तनाद हृदय को
प्रेम के पारावर से भरा होता
इतना भी नहीं तो
करूणा के कुछ बुंदे ही
छलकाई होती
पर नहीं
क्रोध के आवेग में
मेरे मौन को स्वीकारोक्ति मान
अपराधी घोषित कर
दंड का निर्णय दे दिया
और उस भयानक वन में
अकेला छोड़ दिया
अचेतन से चेतन तक आने में
युगों लग गये
पर अब तक अपना
अपराध जाने बिना
प्रायश्चित की प्रतिमूर्ति बनी
पाषाण शिला प्रतीक्षारत है
राम के आने की
पर हां अब भी कहूंगी
मेरा मौन मेरी स्वीकारोक्ति नहीं थी
नहीं थी मेरी स्वीकारोक्ति।

About the author

शुभ्रा सिंह

स्थान- भिवाड़ी, राजस्थान
शिक्षा- परास्नातक ( प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व)
वर्तमान में - संयोजिका (सभ्यता अध्ययन केंद्र), प्रबंध संपादक (सभ्यता संवाद), समन्वयक (स्वस्थ भारत मीडिया)
पूर्व में - सह संपादिका( भारतीय पक्ष), संपादन प्रबंधन (संवाद मीडिया)
लेखकीय कार्य - विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, कविता और आलेख का लेखन। तीन साझा काव्य संकलन प्रकाशित (मेरी नजर से, नवसृजन, आयान)
हिंदी के साथ साथ मैथिली में भी कुछ आलेख, कहानी और कवितायें। मैथिली पद्य संकलन में प्रकाशित मैथिली कविता साथ ही मिथिलानी में भी कविता, कहानी और आलेख प्रकाशित।
सामाजिक कार्य - ग्लोबल सोशल कनेक्ट, समग्र उत्कर्ष समिति, स्वस्थ भारत ट्रस्ट, सक्षम, सूर्या फाउंडेशन, दीनदयाल शोध संस्थान जैसे समाजिक संस्थानों के साथ अनेक प्रशिक्षण कार्यों का अनुभव।
रूचि- संगीत, नृत्य, सामाजिक कार्य

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