आलेख कथा आयाम

हिंदी को खतरा स्वयं हिंदी के लोगों से

अश्रुत पूर्वा II

साल भर बाद फिर हिंदी दिवस आया है। अंग्रेजी में लिखने पढ़ने वाले भी हमेशा की तरह हिंदी पखवाड़ा मनाएंगे। इस बीच कुछ साहित्यकार हिंदी की शुचिता का रोना रोएंगे तो युवा लेखक नई हिंदी गढ़ने का संकल्प लेंगे। हम जानते हैं कि भारत में हिंदी न तो प्रौद्योगिकी की भाषा है और न ही रोजगार की। फिर भी वह इन दोनों के बीच अपनी अस्मिता तलाश रही है। अपने कदम बढ़ा रही है। कुछ क्षेत्रों में वह अंग्रेजी से आगे निकल रही है।

पिछले साठ साल से अधिक समय से राष्ट्र की अभिव्यक्ति की जो परिभाषा गढ़ी जा रही है, वह अचंभित करती है। हम इस नई हिंदी को समकालीन भाषा कह सकते हैं, जिसे पूरा भारत बोलता और समझता है। यहां तक कि दुनिया के कई देशों के लोग भी हिंदी सीखना चाहते हैं। वह सरहद पार कर चुकी है। वह सात समंदर पार बोली जाने वाली भाषा भी है।

अब हिंदी के पास अंग्रेजी से या किसी से भी निरर्थक लड़ने का वक्त नहीं है। उसका तो किसी से और कभी बैर था भी नहीं। वह तो इतनी उदार है कि उर्दू और फारसी से लेकर अंग्रेजी तक के शब्दों को आत्मसात करती रही है। अब तो स्थिति यह है कि आक्सफोर्ड डिक्शनरी में भी हिंदी के प्रचलित शब्दों को जगह मिल रही है। यही है हिंदी की शक्ति। उसने देश की विविध बोलियों को मूल शक्ति बनाया है। फिर हिंदी के प्रति उपेक्षा और द्वेष का भाव कहां से आया? यह मंथन का विषय है। 

आज सबसे बड़ी चिंता यह है कि हिंदी को खतरा स्वयं हिंदी के लोगों से है। जिनको जब-तब लगता है कि हिंदी खतरे में है। जो इसकी शुचिता के लिए आवश्यकता से अधिक आग्रह रखते हैं। हिंदी को खतरा उनसे भी है जो हिंदीभाषी होकर भी ठीक से नहीं लिखते और उपहास के पात्र खुद भी बनते हैं।

हिंदी की दुर्गति के लिए आप रोते हैं। मगर भारतेंदु तो बरसों पहले रोए। किसने उनकी सुनी? खेमेबाजी से हिंदी को कोई मतलब नहीं है। वह एक दूसरे से प्रतिद्वंद्विता करने वाले ऐसे साहित्यकारों के चंगुल से निकल रही है। अब कमान नई पीढ़ी ने संभाली है। सच तो यह है कि इस भाषा की दुर्दशा के लिए वही लोग जिम्मेदार हैं जो शुचिता के नाम पर इसे शास्त्रीय भाषा बनाए रखना चाहते हैं। ये वही लोग हैं जिन्होंने पाठ्यक्रमों की चहारदिवारी और जरूरत से ज्यादा व्याकरणिक पाबंदियों के बीच हिंदी की रसधारा को सूखने दिया। साहित्य के मठाधीशों ने तो इसे ऐसी विशिष्ट भाषा बना दी कि एक समय में यह उपहास का पात्र बनी रही। यानी यह एक ऐसी स्त्री के रूप में दिखने लगी, जो बेहद दुबली-पतली थी मगर अलंकारों के बोझ से दबी हुई थी।

हिंदी पर अनावश्यक अनावरण को सबसे पहले सिनेमा और फिर मीडिया ने उतार फेंका। सकुचाई सी वह स्त्री (भाषा) एकदम तेजतर्रार अंदाज में सामने आई। हिंदी के इस नए रूप का परंपरावादियों ने यह कर कर विरोध किया कि यह तो बाजार में बैठ गई है। यानी यह बाजार की भाषा है। कोई स्त्री सजने-संवरने लगे, तो क्या उसके चाल-चरित्र पर संदेह करेंगे? परंपरावादियों का आरोप यही भाव लिए हुए था। आज हिंदी का ‘बोल्ड’ होना इन्हीं परंपरावादियों को करारा जवाब है। समकालीन लेखकों ने हिंदी को एक नया तेवर दिया है। इसे आगे बढ़ने से रोका नहीं जा सकता।  

हिंदी की दुर्गति के लिए आप रोते हैं। मगर भारतेंदु तो बरसों पहले रोए। किसने उनकी सुनी? खेमेबाजी से हिंदी को कोई मतलब नहीं है। वह एक दूसरे से प्रतिद्वंद्विता करने वाले ऐसे साहित्यकारों के चंगुल से निकल रही है।

क्षेत्रीय भाषाओं के अलावा देसज शब्दों और मुहावरों से समृद्ध हुई हिंदी कोई एक दिन में नहीं बनी है। भाषा के बनने की एक सतत प्रक्रिया होती है। वह समय और स्थान के हिसाब से बनती-बिगड़ती रहती है। पिछले दो दशक में मीडिया और बाजार ने भी एक नई हिंदी बनाई है। यह कुछ को भली लगती है, तो कुछ को अखरती भी है। कोई दो राय नहीं कि अंग्रेजी शब्दों के बेतहाश इस्तेमाल से हिंदी असहज हुई है। मगर इस अलंकरण को भी वह एक दिन उतार फेंकेगी।

पिछले एक दशक में हिंदी मीडिया ने भाषा को एक बार फिर परिमार्जित किया है। इससे हिंदी जरूरत से ज्यादा चमकी है। यह ‘रिन की चमकार’ की तरह है। मीडिया का प्रभु वर्ग इसे युवा भारत की भाषा बनाने पर तुला है। इसका समर्थन भी है और विरोध भी। हिंग्रेजी बनती हिंदी अपने सामान्य रूप में कैसे बरकरार रहे। इस पर हम सभी को सोचना चाहिए। कैसे वह नई तकनीक से जुड़े शब्दों को अंगीकार करे और इससे जुड़े नए शब्द तैयार कर उन्हें प्रचलित किया जाए।  

मोबाइल फोन पर एसएमएस और वाट्सऐप पर रोमन में संदेश भेज रही नई पीढ़ी पहले हिंदी में ही सोचती है। उनकी चैटिंग यानी संवादों में अंग्रेजी के शब्द ‘नमक में आटे के बराबर’ ही होते हैं। यह हिंदी की ही ताकत है कि तमाम बड़ी कंपनियां अपने मोबाइल फोन को हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में समर्थ बना रही हैं। दूसरी ओर माइक्रोसॉफ्ट और गूगल जैसी कंपनियों ने हिंदी के संवर्धन की दिशा में बड़ा काम किया है। वे जानती हैं कि नई पीढ़ी अपनी भाषा में संंवाद करना ज्यादा पसंद करती हैं। फिर क्षेत्रीय भाषाओं का अपना एक विशाल वर्ग भी है, जिसकी उपेक्षा कर बाजार में नहीं टिका जा सकता।

हिंदी दुनिया की सबसे अधिक वैज्ञानिक भाषाओं में से एक है। उसका अपना व्याकरण है। तत्सम, तद्भव और देसज शब्दों से हिंदी का किला इतना मजबूत है कि अंग्रेजी के तमाम शब्द सेंध लगा लें, इसे कमजोर नहीं कर सकते। हिंदी इतनी गरीब नहीं कि बेवजह वह अंग्रेजी से बहुत ज्यादा शब्द उधार ले। समकालीन लेखकों का यह दायित्व है कि वे हिंदी को परिमार्जित तो करते रहें, मगर इसकी शब्द संपदा का भरपूर प्रयोग करते हुए इसके मूल चरित्र को भी बनाए रखें। जरूरत पड़ने पर चाहे किसी भी भाषा के शब्द मिलाएं, लेकिन इसकी जीवंतता बनी रहे। जन-जन की भाषा बने हिंदी। जय हिंदी।
       
हिंदी बरसों से अपनी राह बनाती आगे बढ़ रही है। वह हर दौर में भारतीयों की जुबान रही है। कोई बाजार या कोई मीडिया उसे अपनी चेरी बना ले, यह मुमकिन नहीं। इसके लिए हिंदी और भारतीय भाषाओं के सभी लेखकों को सजग रहना होगा। खेमे से बाहर निकल कर एकजुट होना होगा। यह सभी दायित्व है।  

हिंदी दिवस पर अश्रुत पूर्वा की ओर से सभी पाठकों को शुभकामनाएं।

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Ashrut Purva

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