कविता काव्य कौमुदी

मेरे दो फूल

डॉ परमजीत ओबेरॉय II

दो फूल
हैं मेरे दो फूल-
जाऊं कैसे,
इन्हें मैं भूल।
चाहे जाएं –
ये मुझे भूल,
होंगे मेरे लिए-
शायद वे शूल।
एक है-
जूही की कली-सी ,
अन्य है सूरज,
देख होता अचरज-
दोनों के असीम गुण।
न मेल है इनमें –
क्योंकि दोनों हैं,
अपने-अपने क्षेत्र में निपुण।
रहते दोनों-
हृदय में मेरे,
जैसे सिक्के के-
दो पहलू।
है दोनों में –
आत्म-सम्मान,
तभी सोच कर-
होता मुझे कुछ अभिमान।
एक लाडला –
एक है लाडली,
दोनों मेरे –
तन-वृक्ष की डाली।
आगे बढ़ें –
सदा भविष्य में,
संवार जीवन की बगिया-
मूल्य रहें केवल,
सदा जीवित उनमें।
हों दुख दूर –
सदा ही इनसे,
आगे बढ़ें –
पग थमें न इनके।
जन्म लेते ही
जन्म लेते ही इंतजार है करती,
इतना लंबा होगा इंतजार-
सोच न घबराती।
न जाने किसने है पकड़ा उसे,
किंतु बीच-बीच में
मौका पाकर आती,
पर केवल सताती।
वह है भी हठी,
जो रोकने पर भी –
है न रुकती,
सच्चा प्यार है उसे हमसे-
हमारे प्राण हैं वह जैसे।
सच्ची भक्तिन की भांति-
न मिलने तक,
मिलती है न उसे शांति।
है वह शाश्वत-
बाकी सब नश्वर,
जान कर भी हम –
उपेक्षा करते,
हम उसकी क्षण-क्षण।
करते प्यार उसे –
जिसे न जरूरत है,
जिसकी।
काल रूप में जब-
है वह मंडराती,
तब धीरे-धीरे समझ,
सबसे पहले है जाती।
थे प्रेमी-प्रेमिका की भांति-
ले जाने को प्राण हमसे,
जैसे अपने सपने
है वह सजाती।
अन्य सब देख कर –
इतना न हैं समझते,
जीवन रूपी सपने-
में हम,
क्यों यूं ही हैं उलझते।

जिंदगी है अब खाली
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सबके हुए
सबके हुए न हुए बस मेरे
सोच यूं ही गुजरते रहे
मेरे सांझ और सवेरे।
ममता का मर्म क्या वे जाने
तभी तो लगते इससे अनजाने।
हर दिन अब लगे ऐसा
जैसे हों जमाने।
जिंदगी है अब खाली
भाव निकल रह गई जाली।

About the author

डॉ. परमजीत ओबेरॉय

डॉ. परमजीत ओबेरॉय हिंदी की शिक्षिका हैं। उन्होंने हिंदू कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय से एमए करने के बाद पीएचडी की है। इन दिनों वे ओमान स्थित इंडियन स्कूल में हिंदी पढ़ाती हैं। डॉ. परमजीत की कविताएं अमर उजाला सहित तमाम पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं।

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