डाॅ यशोधरा शर्मा II
[हमारे नानाजी रेल सेवा में थे गाजियाबाद से स्थानांतरित होकर हाथरस जंक्शन आए और यही स्थापित हो गए। दशहरा अवकाश में माँ के साथ हम जाते थे नानी के घर। ये अदभुत राम लीला हम बच्चों के लिए बेहद ‘ग्लैमरस’ थी। इस मंच पर छोटे भाई और मैने भी अपनी नन्ही मुन्नी नृत्य कला का प्रदर्शन किया था और एक-एक रुपए का पुरस्कार भी लिया था। बचपन की ये रामलीला अभी तक हमारी स्मृतियों मे है ।]
जब स्टेशन था तो तीस पैंतीस दुकानों का बाजार भी हो गया था। मौसम की और दैनिक आवश्यकताओं का सामान मिल ही जाता था। दशहरे का दिन, जब रामलीला हुई है तो रावण संहार भी आवश्यक अन्यथा अपूर्ण राम लीला।
रावण दहन से एक दिन पूर्व, रावण दरबार में नर्तकी बने हुए फिल्टर जी नीली साड़ी में नागिन नृत्य कर रहे थे मौर्य बाबू रूमाल से बीन बजा रहे थे झूम-झूम कर- ‘तन डोले मेरा मन डोले’…मंदोदरी को मंच पर प्रवेश करना था, नीली साड़ी एक! अब?
नेपथ्य से सुगबुगाहट- ”नाच बंद करो, साड़ी लेनी है” निष्प्रभाव! ‘अबे साड़ी दे दे सारे, (साले) के लगाऊँ दो एक’ नृत्य जारी। रावण को सब्र नही हुआ ‘सिंहासन से उतर कर हा हा हा हा अट्टाहस करता हुआ कमनीय काया फिल्टर बाबू को उठाया और येएएए फेंक दिया पीछे। साड़ी मिल गई। अहाते से, गाँवो से, रंगबिरंगे चमकीले वस्त्र पहिने लाल पीले ‘किलिप’ लगाए वैजयंतीमाला, निम्मी बनी हुई(अपनी कल्पना में) षोडिशियां और रंग-बिरंगी छापेदार रेशमी शर्ट, तेल टपकाते बालों में बुलबुलें काढे, देवानंद, दिलीप कुमार बने हुए सजे धजे ये नव कुमार, सब भाग निकलते, और छतों पर, छज्जों पर, दुकानो पर जहाँ जिसका सींग समाए समा गए।
तड़क तड़क तड़ तमऽऽ दो पेट पीटे, और मदहोश झूमता हुआ एक सिर, और तलवार लहराती काली! भयानक रस का संचार करती निकली। ‘अरे हट जाओ रे सामने से, आज तो खूबई पी लई है जानै रोके से नाए रुक रयो जे रमेसा” रमेश काली रूप में था।
नन्हे-नन्हे ‘कलमुँहे’ यानी मुँह पर काला पीला रंग लगाए हाथों में छोटे बड़े डंडे घुमाते “लंका दल के, रावण दल के हम निश्चर कहलातें हैं”, और लाल मुँह किए” हनुमान की पूँछ में लगन न पाई आग, सारी लंका जल गयी गया निशाचर भाग” कहते हुए भागते जाते।
पिद्दी से, मरियल से घोड़े वाले जैसे पुरातत्व विभाग से मँगाए हों (जंक्शन पर यही उपलब्ध थे) खड़-खड़ करते खुले, टूटे ताँगो में बाजार की कच्ची सड़क पर राम लक्ष्मण, लंकापति निकलते। थोड़े से अंतराल पर राम और रावण उतर कर युद्ध का अभिनय भी कर लेते थे। बाजार के सबसे समृद्धशाली लाला, गर्वित भाव से श्री राम की आरती उतारते- “बोलो कै लाला राम चन्दर की जै। पीछे से किसी मस्त मस्ताने का स्वर- ”और जो न बोले, बाई में दे।”
रेलवे लाइन के पार किसी खेत के खाली भाग में रावण दहन होता। बाजार की सारी भीड़ दौड़ती हुई,” ओरे लल्लू रे रामन जरैगो चल जल्दी, ओ नैकसे! अम्मा कौ हाथ पकर लैयो” जि प्रेमा कहाँ है? चली गयी होगी पाठक के छोरा के संग, जे छोरी तो रोके नाए रुकत। ऐसी ज्वानी (जवानी) हिनहिना रही है!” हौ हल्ला मचाते स्थल तक आते। इस भाग दौड़ का लाभ उठाते अस्थायी प्रेमी जन भाग लेते कहीं।
राम जी ने चलाया बाण और धड़ धड़ धड़ाम धूँऽ येएएएऽ हो गया दहन रावण के अंग प्रत्यंग उड़ने लगे हवा में कि देख लो यह हश्र होता है बुराई का।
भीड़ इंस्टीट्यूट दौड़ गयी, आज राज्याभिषेक के साथ पटाक्षेप भी तो होना था राम लीला का एक वर्ष के लिए। राम दरबार सज गया। सारी जनता चवन्नी, अठन्नी रुपए से भगवान जी का तिलक करने को आतुर थी और महावीर हनुमान गायब!! राम और हनुमान का कोई व्यक्तिगत झगड़ा हो गया था। हनुमान का स्पष्ट इंकार “नही बैठुगाँ डोरी लाल (राम) के पैरों में और चरण स्पर्श भी नही”।
जनता शोर मचा रही “अरे जे हनुमान कितकू डिगर गयो? ( कहाँ निकल गया)। फिल्टर आज लाल सलमे सितारों वाली साड़ी (पत्नी की ) पहने थे। राम दरबार मे विशेष नृत्य था। बजरंग बली नही मान रहे थे। स्टेशन के बाँस जैसे पतले लंबे कुली रामचरन को हनुमान बनाया गया, और राम लीला हो गयी सम्पन्न।