राधिका त्रिपाठी II
जीवन में कुछ चीजें समय पर जरूर करनी चाहिए। हर वह काम कर लेना चाहिए जिसका मलाल जीवन के अंत में न रहे। मगर हम में से ज्यादातर लोग ऐसा कर नहीं पाते। फिर पछताते हैं या चुपके चुपके रोते हैं। चाहे वह पढ़ाई हो या करिअर को लेकर बड़ा कदम उठाने की बात। या फिर प्रेम होने पर समय पर इजहार कर देने की बात। हालांकि कई लोग ऐसा नही कर पाते। जिसका दुख ताउम्र सालता है।
यही हाल मन की चिट्ठियों का है। कौन बांच पाया है इन्हें। कुछ बातें मन में ही रह जाती हैं। मन की वो चिट्ठी कभी दूसरे के दिल के पते पर नहीं पहुंचती। कई चिट्ठियां कभी बांची ही नहीं गई। जो आंखों के कोरों पर अटकी रहती हैं। और टकटकी लगाए इंतजार करती रहती हैं, किसी अपने का… कि इक दिन वह आएगा और धड़कते दिल से उन्हें बांचेगा। कई चिट्ठियां किसी पते पर नहीं पहुंचतीं वह बस आभास कराती हैं कि मेरी नियति ही यही है कि लिफाफा बंद ही रहे। और एक दिन लिखना भी बंद हो जाएगा…! कोई अपने दिल की बात नहीं कहेगा।
चिट्ठियों का यह संसार शायद कभी विलुप्त हो जाए, लेकिन लिखने का क्रम जारी रहेगा। इसमें रूदन, पीड़ा, हंसी, करुणा, स्मृतियां, प्रतीक्षा, रूठना-मनाना, प्यार…और भी बहुत कुछ होता है। चिट्ठियों का अपना संसार है। एक दूसरे से अलग कोई दखल नहीं एक दूसरे को। सभी चिट्ठियां किसी डाकघर में एक साथ इकट्ठा होती है। सब की अपनी कहानी होती है। और फिर अपने-अपने पते पर जाने का इंतजार करती हैं। डाकिया बैग में रख कर घर-घर दिए पते पर पहुंचाता है। सचमुच एकदम अलग सा है इनका संसार…!
अपनी स्वर्गवासी पत्नी की आखिरी चिट्ठी सच्चिदाानंद संभाल कर रखे हुए थे। वे जब बहुत अकेले या उदास होते, तो अपने कमरे में जाकर उस आखिरी चिट्ठी को खोल कर पढ़ने लगते। शायद उस चिट्ठी का जवाब वे रोज दूंढते और नहीं दे पाते। फिर चश्मे को उतार कर एक मुस्कान के साथ अपनी नम हुई आंखें पोंछने लगते।
चिट्ठियों का अपना संसार है। एक दूसरे से अलग कोई दखल नहीं एक दूसरे को। सभी चिट्ठियां किसी डाकघर में एक साथ इकट्ठा होती है। सब की अपनी कहानी होती है। और फिर अपने-अपने पते पर जाने का इंतजार करती हैं। डाकिया बैग में रख कर घर-घर दिए पते पर पहुंचाता है। सचमुच एकदम अलग सा है इनका संसार…!
आज तक सच्चिादा बाबू के बच्चों को समझ नहीं आया कि पिताजी ऐसा क्या पढ़ते हैं उस मैले से लिफाफे में बंद चिट्ठी को खोल कर। कई बार पूछा तो बस इतना ही बताया कि ये तुम्हारी मां की आखिरी चिट्ठी थी। जो उसने मरने से पूर्व मुझे लिखी थी और मैं इसका जवाब नहीं दे पाया।
कुछ साल बाद सच्चिदानंद बीमार पड़ गए मौत उनके सामने खड़ी थी। उन्होंने अपने पोते को अपने पास बुलाया और कहा कि सामने की अलमारी में तुम्हारी दादी की चिट्ठी है। उसे ले आओ। चिट्ठी हाथ में आते ही उसे सीने से लगा लिया और फूट-फूट कर बच्चों की भांति रोने लगे। और फिर आखिरी हिचकी के साथ उनके प्राण पखेरू उड़ गए। उनके दाह संस्कार के साथ ही वह आखिरी चिट्ठी भी जला दी गई।
लेकिन सच्चिदाानंद का पोता आज भी उस चिट्ठी की महक अपनी उंगलियों में महसूस करता है। सोचता है… क्या दादी ने सच में खाली चिट्ठी भेज दी थी दादा जी को? आखिर वो क्या लिखना चाह रही थीं? और दादा जी क्या पढ़ते रहे उम्र भर उस आखिरी चिट्ठी में? जिसके कारण कभी वे रोए, कभी हंसे तो कभी उदास होते हुए जीते रहे। शायद यही रहस्य जीवन का है कि जीवन ऐसे ही चलेगा। हर चीज का समय है वो तभी करना चाहिए नहीं तो साथ छूटने पर बस यादें ही रह जाती हैं। हो सके तो मन की चिट्ठियां उनसे बांच लीजिए, जिनसे कुछ कहना चाह रहे और कह नहीं पा रहे।