राधिका त्रिपाठी II
पेट की भूख हमें मुंह नहीं खोलने देती। माता-पिता की उम्मीदें हमें सोने नहीं देती। मंजिल की चाह में हम मुसाफिर बने फिरते हैं। कोई चाहत भी नहीं ऐसी जिसे चाहें उम्र भर…!
लड़कियां घर की दहलीज लांघते हुए तमाम सपने अपने दुपट्टे से बांध कर कंधे पर सजाए आसमान देखती है। उन्हें क्या पता… जिस आसमान को वे आंखों में भर लेना चाहती हैं, वही एक दिन उन्हें जिंदा निगल लेगा धीरे धीरे। कितनी अनकही बातें होती हैं जिन्हें वो चिल्ला कर सभी को बताना चाहती हैं। कितने ही अनचाहे स्पर्शों को वो जिस्म के साथ काट कर अलग कर देना चाहती हैं। वे अपने आंसुओं की नदी से समुद्र को भर देना चाहती हैं।
ठेकेदार का स्पर्श मजदूर औरतों को बर्दाश्त करना पड़ता है। पढ़ी-लिखी लड़कियों को बॉस का कंमेंट भद्दी सी मुस्कुराहट के साथ मन में दफ्न करना पड़ता है। पतियों का खुरदरा और रौंदता हाथ भी गहरी पीड़ा दे जाता है। इन सभी से इतर घरेलू औरतों को दोयम दर्जे का जीवन जीना पड़ता है। पेट की भूख के आगे सब बेमानी है। सारी कल्पनाएं बस कल्पना बन कर हवा हो जाती हैं। और घर वापसी के दरवाजे पर खुशी की जगह फिक्र की चादर तन जाती है। कौन सुनेगा इन सभी बातों को? अगर सुन भी लिया तो कोई कितना मानेगा। पुरुष तो बिल्कुल नहीं। इन बातों को मानने और सुनने के लिए औरत ही होना चाहिए। जो औरत की सुन सके जान सके। मन के सिक्कों की खनक दे सके सुरक्षित कंधा, दहलीज लांघती औरतों को।
आज स्त्रियों की मुस्कान तस्वीरों में सिमट कर रह गई है। स्त्रियों को इसी कैद से बाहर निकलने की जरूरत है। उसे अपनी उम्मीदों का सूरज हथेलियों में समेटना होगा। औरतों का संसार बहुत बड़ा है। चाहे तो वो पूरा आसमान समेट ले।
लड़कियों के लिए मां का गर्भ भी कहां सुरक्षित रह गया? अब कुछ नहीं होने की चाह में वे हमेशा दोयम दर्जा लिए स्वीकारी गई। कई कन्या भ्रूण हत्या के बाद जन्मे बेटे बढ़ाने लगे पिताओं का मान सम्मान। और बेटियां बनाती रहीं गोल रोटियों का आकार। जलाती रही सपनों का संसार तवे की तपन में। औरतों का संसार भाई, बाप, मां और पति के आसपास ही घूमता रहता और ये चक्र कभी खत्म नहीं होता। अपने लिए वे आसमान नहीं बना पातीं जहां वो सपनों का इंद्रधनुष रच सके। न ही वो अपनी खिलखिलाहटों से गुंजा पाती हैं अपने आसपास की दुनिया। क्योंकि इस पर भी कहीं न कहीं कोई अंकुश लगाने सामने आ जाता है। इस तरह एक दिन वह खुद ही खत्म होने के कगार पर पहुंच जाती हैं।
ऐसी स्त्रियों का कोई मित्र नहीं होता। अगर हो भी तो समाज स्वीकार नहीं करता। घर से बाहर उसका कोई मित्र हो तो वह चरित्रहीन हो जाती है। मगर पुरुषों की कई महिला मित्र हो, तो वह सदाचारी है। आज के आधुनिक दौर में भी कितना दोगलापन है। अगर इस दोगलेपन का कोई स्त्री हिसाब लगाने बैठती है तो वह मार दी जाती है। याद कीजिए श्रद्धा वालकर को। उसके साथ भी यही हुआ। उसने प्यार किया, बदले में मिला अविश्वास। आज उसकी मुस्कान तस्वीरों में सिमट कर रह गई है। स्त्रियों को इसी कैद से बाहर निकलने की जरूरत है।
एक मित्र तो सबके पास होना ही चाहिए। ऐसा जो जाने और समझे उन्हें। उनकी सांसों को पढ़े, दिल को पढ़े। उनके सपनों को उनसे भी बेहतर उनसे भी गहराई से जाने। जो आंखों के नीचे आए कालेपन को चूम कर सोख ले सारी उदासियां। जो उन्हें फिर से एक नई उड़ान भरने के लिए पंख दे। जरूरी नहीं ये मित्र औरत या आदमी में बांटे जाएं। ये बस मित्र रहें बिना किसी लैगिंग भेदभाव के। जो दे दे अपना कंधा। अनायास उमड़ आए आंसुओं को संभाल ले। अपना रूमाल नहीं अपनी हथेलियां आगे बढ़ा कर आंसुओं को पोंछ ले और कहे- मैं हूं न। …रो लो जी भर। ताकि हल्का हो सके तुम्हारा मन।
औरतों का संसार बहुत बड़ा होता है। चाहे तो वो पूरा आसमान समेट ले। पहाड़ को लाद ले अपने कंधे पर। वो सपनों की दुनिया उजाड़ कर पुरुष का घर बसाती है। उन्हें बसाने के लिए मित्र ही तो चाहिए…। चाहे वो कोई भी हो, मगर जब वे साथ नहीं देते तो वह टूट जाती है। बिखर जाती है। इस बिखराव से ही स्त्रियों को बचना है। फिर से खड़ा होना है। एक नया संसार रचना है खुद के लिए।