अश्रुतपूर्वा II
कितनी सरलता से यह समाज स्त्री से उसकी पहचान छीन कर उसे एक पुरुष के अधीन कर देता है। पितृसत्ता स्त्री के पंख नोच कर उसे पति नाम की एक बैसाखी थमा देती है। फिर आजीवन वह स्वयं को थोड़ा-थोड़ा समाप्त होते हुए देखती है। इस समाज में कितनी स्त्रियों को चयन का अधिकार मिलता है। कभी संस्कृति तो कभी प्रेम के नाम पर उन्हें समझौता करना ही पड़ता है। किन्तु प्रेम सत्य तभी है, जब दो प्रेमिल मन एक दूसरे को अपने-अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के साथ स्वीकार करें…।
युवा कथाकार पल्लवी पुंडीर के हालिया प्रकाशित और चर्चित कहानी संग्रह ‘स्वरचिता’ (कहानियां उन स्त्रियों की, जिन्होंने प्रश्न किया) से ली गर्इं उपरोक्त पंक्तियां आज की स्त्री का आत्मबोध है, जिसे परिवार-समाज तो क्या पति या पुरुष मित्र भी भाव नहीं देते। जबकि सच्चाई यह है कि आज की युवा स्त्री स्वयं को रच रही हैं। वह सवाल कर रही हैं। जाहिर है हमें उन्हें सुनना होगा।
सर्वप्रथम, कहानीकार पल्लवी पुंडीर की बात करें। वे पटना के वूमंस कालेज की अर्थशास्त्र की छात्रा रही हैं। लंबे समय तक कारपोरेट की दुनिया में रही हैं। मार्केटिंग और फाइनेंस का कार्य करने के बाद आप स्वतंत्र लेखिका हैं। यानी हर बार उन्होंने खुद को रचा है और अब वे कहानीकार के रूप मे सामने हैं। वे महाभारत के एक सशक्त स्त्री पात्र हिडिंबा पर आधारित उपन्यास लिख चुकी हैं जो किंडल पर काफी चर्चित रहा। उनके हालिया कहानी संग्रह ‘स्वरचिता’ को पढ़ते हुए यह महसूस होता है कि वे सदियों से स्त्रियों के भीतर सोई आग को प्रज्वलित करना चाहती हैं। इसके लिए जिस तरह वे शब्दों का चयन वे करती हैं, वह चकित ही नहीं, मुग्ध भी करता है।
अब हम विषयवस्तु पर आते हैं। पल्लवी के स्त्री किरदार बेहद शोख और चंचल होने के साथ गंभीर हैं। वे पुरुषों के दिखाए रास्ते पर नहीं चलना चाहतीं। वे अपना रास्ता खुद बनाती हैं। तभी तो वे स्वरचिता हैं। वे अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए बेताब जरूर हैं, पर वे उतनी ही संवेदशील भी हैं। वे परिवार की नजरों में कुलबोरनी हो सकती हैं, मगर उनका ऐसा इरादा नहीं कि उनकी वजह से बदनामी हो। वे अपने हिसाब से लक्ष्य निर्धारित करती हैं। यही बात पुरुष को बर्दाश्त नहीं। इससे उनकी पितृसत्ता को ठेस लगती है।
कहानी मैंने ‘पिता को जन्म दिया’ की स्त्री पात्र पर प्रोफेसर पिता का दबाव है कि वह विज्ञान पढेÞ, मगर बेटी को साहित्य से अनुराग है। वह सवाल करती है और पिता से मार खाती है, पर अपनी जिद नहीं छोड़ती। वह पढ़ती है और एक दिन साहित्य में डाक्टरेट कर प्रोफेसर के पद पर भी पहुंच जाती है। लेखिका एक जगह लिखती हैं- मनुष्य के स्वातंत्रत्य रूपी पाश की कुंजी आर्थिक स्वतंत्रता है। दरअसल, वे स्त्रियों के लिए ही यह कहना चाहती हैं कि कोई भी नारी आत्मनिर्भर तभी बना सकती है, जब वह पुरुष (चाहे पिता हो पति) पर आर्थिक रूप से निर्भर न हो।
जब स्त्री आत्मनिर्भर हो जाती है तब वो मीरा जैसी हो जाती है। कहानी मीरायण की यह पात्र अपने अनन्य प्रेमी हर्फ (जिसे कभी प्यार से माधो कहा करती थी) के बच्चों को पालने का हौसला रखती है। वो जीवन की लंबी डगर को पार करते हुए मुकाम तक पहुंचती है। खुद की पहचान बनाती है और बड़े निर्णय करती हैं। यही वजह है कि जब उसकी सांसों की डोर टूटती है, तो बेटा गुलशन अपने घर का पता अपनी मां के नाम कर देता है-‘जी, हमारे घर का पता है- मीरायण, मकान नंबर-44…।’ सचमुच बहुत प्यारी और दिल छू लेने वाली कहानी है यह।
इसी तरह ‘केशकर्षिता’ में भी सवाल उठाती एक स्त्री है। नाम है उसका केशा। वह सशक्तीकरण को नया विमर्श देती है। जो यह कहती है कि परस्पर सखीभाव रखना ही स्त्रीवाद है। किन्तु इसके लिए स्त्री को स्त्रैण के साथ सुप्त पौरुष को भी जागृत करना होगा। इतना ही नहीं, स्वाध्याय द्वारा स्वाधिनी बनना होगा। वहीं पुरुष को पौरुष के साथ अपने अंतर्मन में सुप्त स्त्रैण भी जागृत करना होगा। ऐसा होते ही समाज में समभाव स्थापित हो जाएगा। इस कहानी की भाषा शैली और शब्दों का चयन काबिले तारीफ है। केशा के साथ जो हुआ, उसे पढ़ कर कलेजा फट जाता है।
इस संग्रह की एक कहानी है ‘प्रभाती’। कहानी की नायिका और युवा सितारवादक शशि की प्रेम कहानी जो अधूरी होकर भी एक दिन पूर्णता प्राप्त करती है। कैसे, इसके लिए संग्रह पढ़ना होगा। ‘प्रेमाबंध’ एक महत्त्वाकांक्षी युवती की कहानी है जो मां बन कर भी अपने बच्चे साहिल से भावनात्मक संबंध नहीं बना पाती। क्यों होता है ऐसा? इसे हर दंपति को जानना चाहिए।
कहानी ‘आह!’ स्त्री देह से पार होकर मन को भेदती दो स्त्री पात्रों इला और शैलजा की कहानी है। पति की दैहिक भूख से त्रस्त युवती शैलजा के मन में कई सवाल हैं-मुझे तो समाज का अस्तित्व ही असामान्य लगता है। एक अज्ञात हाथ में हम लोगों का नियंत्रण है। क्या पहनना है, किससे प्रेम करना है, किससे विवाह करना है, कितना बोलना है, कब चुप हो जाना है आदि-आदि। क्या शैलजा इला में अपना स्नेहिल साथी ढूंढ़ रही है? स्त्री मनोविज्ञान की परतें खोलती यह कहानी बहुत कुछ कह जाती है।
इसी तरह ‘लेपर्ड लिली’ छोटी सी कहानी है। वह एक युगल के बीच प्रेम को बेहद सुंदर ढंग से व्याख्यायित करती है। प्रेम में आबद्ध नायिका विवाह को चुनौती देती हुई पुरुष मित्र से तीखा सवाल करती है- तुम्हारे समाज का यह दोगलापन ही तो चुभता है। यहां राधा-कृष्ण तो पूजनीय हैं किंतु प्रेमी युगल दंडनीय। इसी तरह कहानी ‘द्रोहिणी’ की पात्र सरोज अपने विद्यार्थियों को प्रश्न पूछना सिखाती थी और एक दिन यही बात उसके लिए दंडनीय हो गई। पुलिस उठा ले जाती है उसे। क्यों और कैसे? इसके लिए आपको कहानी पढ़नी पड़ेगी।
कहानी ‘गृहप्रवेश’ बताती है कि हर स्त्री को अपना आर्थिक प्रबंध रखना चाहिए। एक खूबसूरत सपने में रहना अच्छा लगता है, लेकिन यह सपना टूट भी सकता है। मूसलाधार प्रलय से बचने के लिए हर स्त्री को एक रेनकोट तैयार रखना चाहिए। यह जवाब है नायिका आमोदिनी का अपने पति उज्जल को, जो मोहिनी के मोहपाश में बंध कर पत्नी को छोड़ कर चला जाता है। अपने अंतिम निर्णय के बाद सही मायने में वह गृहप्रवेश करती है, जहां उज्जवल के लिए कोई जगह नहीं।
इसी तरह कहानी ‘परिचय’ में खुद को तलाशती एक स्त्री वर्षा है जो पति नीरज से निराश और उपेक्षित है। मगर वह बरसों बाद किसी उमंग सर से परिचय के बाद खुद से साक्षात्कार कर लेती हैं तो उसके दोनों बच्चों को अखरता है। वह उन्हें चरित्रहीन लगने लगती है। वर्षा के भी कई सवाल हैं जो आज के समाज को चुभेंगे। उसका एक ही जवाब है- मैं स्वयं के साथ रहना चाहती हूं। अंतिम कहानी ‘ताईजी’ झकझोरती है। कहानी की मुख्य पात्र कृष्णावती को ठाकुर राजबीर सिंह से विवाह के बरसों बाद समझ में आता है कि उसने प्रतिशोध में क्या कर डाला। कितने दिलों को दुखाया। मगर वह अपने पति पर चुभते सवाल उठाने से नहीं चूकी।
कुल जमा यह कि कहानी संग्रह ‘स्वरचिता’ हर स्त्री की कहानी है, सबकी अपनी किताब है। उसे यह अपनी-सी ही लगेगी। पल्लवी पुंडीर की उत्कृष्ट भाषा शैली है। कुछ शब्दों को समझने के लिए ठहरना पड़ता है। मगर यह ठहराव भी पाठक को विस्मित करता है। शब्दों का चयन कमाल का है। सहजता और छोटे वाक्य कहानियों की भावना को नदी की धारा के समान बहने देते हैं। पाठक बहता चला जाता है।
कथाकार-पल्लवी पुंडीर
कहानी संग्रह- स्वरचिता
प्रकाशक-प्रतिबिंब प्रकाशन
मूल्य -160 रुपए