धारावाहिक कहानी/नाटक

पिकनिक (अंतिम भाग)

राम कुमार II

मि० सरकार चुप थे, इस अवसर से लाभ उठाकर हमलोग उनके खाने की जो खोलकर प्रशंसा कर रहे थे। जिन खंडहरों को देखकर शुरू में हमें सूना-सूना-सा लगा था, उन्हीं को प्लेट हाथ में थामे देखकर रोमांच-सा हो रहा था। सब जानते थे कि तकल्लुफ से काम नहीं चलेगा, अत: प्लेट में जब कुछ खत्म हो जाता, तो झट से उसकी कमी पूरी कर लेते थे। मि० सरकार ने अधिक नहीं खाया और यह किसी से छुपा नहीं रहा। अपनी झेंप मिटाने के लिए हम बार-बार उनसे अधिक खाने का आग्रह कर रहे थे, मानो वह हमारे अतिथि हों। लेकिन वह मुसकुराकर हमारे अनुरोध को अस्वीकार कर देते थे। परन्तु इससे हमारे खाने की मात्रा में कोई अन्तर नहीं पड़ा। जिससे जितना खाया गया, उतना ही उसने खाया। डायबेटिज के रोगो ने आलू की सब्जी और खीर जी भरकर बाई, गठिया के शिकार वकील साहब ने पुलाव सबसे अधिक खाया, यानी जिस चीज की जिसको मनाही थी, उसने वही खाकर अपनी हवस पूरी की।
खाने के बाद मि० सरकार ने सुझाब दिया कि खाना हजम करने के लिए खंडहरों की सैर की जाए। उनका प्रस्ताव सुनकर हम कॉप से गए। घूमने की बात तो अलग रही, हममें खड़े होने तक की शक्ति नहीं थी । वकील साहब ने हम सबकी ओर से नम्र स्वर में कहा कि एक-आध घण्टा सुस्ता लेने के बाद खंडहरों की सैर करेंगे। मि० सरकार अकेले ही घूमने चले गए। दोनों दरियों को मिलाकर हम सब तुरन्त ही लेट गए। पहले खाली पेट में ह्विस्की गई और फिर यह भोजन, दोनों ने मिलकर शरीर और दिमाग़ को ऐसा जकड़ा कि लेट जाने पर भी कुछ हल्कापन महसूस नहीं हुआ। ऐसा लगा, जैसे पेट में कोई चीज अटक सी गई हो। अकेले रह जाने पर हमें प्रसन्नता ही हुई थी, जिससे आजादी के साथ हम अपने शरीरों को इधर-उधर कलाबाजियाँ देकर हल्का करने की कोशिश करते रहे। यह बात किसी ने स्वीकार नहीं की कि उसने अधिक खाया है, सबने ऐसा प्रकट किया,मानो रोज ही हम इस प्रकार का खाना खाने के आदी हो।
मेरी तो पान खाने को बहुत तबीयत कर रही है,” वकील साहब ने लेटे-लेटे अपना पेट सहलाते हुए कहा।
“याद नहीं रही, नहीं तो यहाँ आने से पहले पान खरीदकर बँधवा लेते।”
अच्छा पंडितजी, आप मांस खाते नहीं थे, लेकिन आज वो आपने बढ़-चढ़कर ऐसे हाथ मारे कि मथुरा के चौबों को भी पीछे छोड़ दिया।
और आप अपनी कहिए! डॉक्टर ने आपको मीठी चीजें खाने की मनाही की है, लेकिन खीर आपने आधा सेर से कम नहीं खाई होगी ।”
खीर में चीनी बहुत कम थी।”
“अरे, हमने भी खीर खाई है, जानते हैं कितनी चीनो यो ? कल जरा या टेस्ट कराके देखिएगा, फिर पता चलेगा कि चीनी कितनी थी!”
पेट के भीतर भयंकर तूफान डोलता हुआ जान पड़ रहा था, जैसे कुछ देर में वह बाहर ही निकल पड़ेगा। अब पछतावा हो रहा था कि पहले क्यों नहीं हाथ रोक लिया। लेकिन खाते वक्त तो ऐसी होड़ लगी हुई थी, जैसे लगाकर हम खाना खाने बैठे हों, कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता था।

“अकेले रह जाने पर हमें प्रसन्नता ही हुई थी, जिससे आजादी के साथ हम अपने शरीरों को इधर-उधर कलाबाजियाँ देकर हल्का करने की कोशिश करते रहे। यह बात किसी ने स्वीकार नहीं की कि उसने अधिक खाया है, सबने ऐसा प्रकट किया, मानो रोज ही हम इस प्रकार का खाना खाने के आदी हो।”

मि०  सरकार चार बजे के लगभग जब वापस लौटे, तब तक हम थोड़े- बहुत स्वस्थ हो चुके थे। जो लोग लेटे हुए थे, वे उठकर बैठ गए और अपनी झेंप मिटाने के लिए हम उनकी ओर देखते हुए मुस्कुराने लगे। यह सोचकर कुछ से महसूस कर रहे थे कि उनका खाना खाने के बाद उनके साथ सैर करने के लिए हम नहीं जा सके। वह हमसे कुछ दूर पर जाकर बैठ गए। उन्हें चुप देखकर हमें डर-सा लगा कि कही हमसे गुस्सा तो नहीं हो गए।
“ऐसी पिकनिक पहले कभी नहीं की थी, यह हमेशा याद रहेगी !” गुप्ता बोले
गुप्ता की बात सुनकर दूसरों का उत्साह भी बढ़ गया।
“और, मि० सरकार, आपने पिकनिक के लिए जगह भी बहुत बढ़िया चुनी। इन खंडहरों से घिरे टीले पर बैठकर बड़ा रोमांटिक-सा लगता है।” अगर सच पूछें, मि० सरकार, तो न जाने क्यों हमें इन खंडहरों से डर-सा लगता था। कुछ ऐसी मनहूसियत को छाया डोलती दिखाई देती यी कि कभी यहां आने का साहस नहीं होता था ।” पंडितजी बोले
“लेकिन आज बहुत अच्छा लग रहा है,” और एक बार साहब ने जब बोलना शुरू किया, तो हमारे लाख इशारे करने पर भी वह चुप होते दिखाई नहीं दिए। उन्होंने बरसों पुराना अपना काला कोट और काली टाई पहन रखी थी, जो किसी जमाने में वकालत करते समय पहना करते थे।
फिर अचानक हमारी ओर देखकर मि० सरकार बोले, लेकिन अभी तो हमारी पिकनिक खत्म नहीं हुई। शाम का प्रोग्राम तो अभी बाकी ही है।” हम सबके चेहरों पर आश्चर्य और कौतूहल की भावना उभर आई। उस एक क्षण में कितने ही विचार बिजली को भांति हमारे दिमाग में कोंध गए। क्या शाम के खाने का भी प्रोग्राम है? क्या टैक्सियों में बिठाकर यह  हमें और सैर कराएंगे?

मि. सरकार का इशारा पाकर उनका बेरा सामान को उलट-पलटकर मि० कुछ ढूंढने लगा। हम सबकी साँस जैसे रुक गई थी। कोई कोशिश भी करता, तो उस समय उसके मुंह से कोई आवाज नहीं निकलती। मि० सरकार स्वयं एक बेंत की पिटारी खोलते हुए कहने लगे, “पिकनिक के अन्त में प्रायः एक प्रकार की ऊब-सी आ जाती है, उसी को दूर करने के लिए मैं कोनियाक की एक बोतल अपने साथ ले जाया था। इसे पीकर हम उसी उत्साह से वापस लौटेंगे, जो सुबह हममें था ।” और वह धीरे-धीरे कोनियाक की बोतल को स्वयं ही खोलने लगे।
कोनियाक का नाम बहुत पहले कभी सुना था, लेकिन जिस जमाने में पीने का शौक था, तब वह कहीं मिलती नहीं थी। फिर वक्त गुजरने के साथ-साथ कोनियाक का नाम भी हमारी स्मृति में धुंधला पड़ गया। आज उसी फ्रांसीसी कोनियाक का पेग हाथ में थामे हम एक प्रकार की भावुकता में डूब गए। बातों का भी ऐसा सिलसिला जमा कि पता ही नहीं चला कि कब हमारे पेग खाली होते गये और कब स्वयं ही भरते गए। ऐसी इच्छा होने लगी कि यहीं पेड़ के नीचे बैठे-बैठे इन खंडहरों के सामने सूरज को  डूबते हुए देखते रहें।
ऐसी अवस्था में कब तक बैठे रहे, यह भी याद नहीं पड़ता। लेकिन आज भी ऐसा लगता है, जैसे अभी कुछ दिन पहले ही पिकनिक की हो, जिसकी स्मृति आज तक कभी धुंधली नहीं पड़ी। आकाश में तारे निकल आए और खंडहरों का सूनापन शाम के धुंधलके के साथ मिलकर एक हो  गया। फिर कैसे हम लड़खड़ाते हुए उतराई उतरकर टैक्सियों तक आए ! बीच में पंडितजी सड़क से हटकर तेज चाल से झाड़ियों में जा घुसे। हमने समझा कि पेशाब करने गये हैं, लेकिन जब लौटे तो क़ै की दुर्गन्ध आ रही थी और बहुत कोशिश करने पर ही हम अपनी मितली को रोक सके। वह सब आज स्वप्न-सा लगता है। हमारी दशा देखकर मि० सरकार ने हमारे विषय में क्या सोचा होगा और उनका बैरा चुपचाप कितना हंसा होगा, वह सब भी हमने कभी नहीं जाना।
टैक्सियों की खिड़कियों में से आती ठंडी हवा में हमारी सुस्ती कुछ- कुछ दूर होने लगी। और जब शहर की बिजलियाँ, राह चलते लोग दिखाई देने लगे, तो हमारी चेतना को जागते भी देर नहीं लगी। हम अपने घरों को बापस लोट रहे हैं, इस विचार के आते हो दुनिया हमें बहुत तेजी से घूमती हुई दिखाई दी। अपनी वास्तविक स्थिति का भी कुछ-कुछ आभास हुआ।
दोनों टैक्सियां मि० सरकार के घर पर ही रुकीं। उतरने की क़तई इच्छा नहीं थी, लेकिन विवश थे। आशा की कि मि० सरकार कुछ देर के लिए अपने घर के भीतर हमें बुलाएँगे, लेकिन उन्होंने हम सबसे हाथ मिलाया और पिकनिक में उनका जो मनोरंजन हम लोगों के कारण हुआ, उसके लिए हमें धन्यवाद दिया और फिर ‘वेल, गुडनाइट !’ कहकर भीतर चले गए। बैरे ने भी हम पर एक दृष्टि डाली और टैक्सियों का भाड़ा चुकाने लगा।
उसके भय से हम शीघ्र वहाँ से हट से गए।
हमने अपने कपड़ों को ठीक किया। मैंने अपनी पगड़ी को ज़रा खोलकर, कसकर बाँधा, क्योंकि वह सिर से नीचे फिसलती हुई जान पड़ रही थी। गुप्ता  अपने बाहर निकले पेट को भींचकर भी अपनी पैंट के ऊपरवाले बटन को बन्द करने में असफल रहे। हममें से किसी ने भी यह स्वीकार नहीं किया कि उसे घर जाने में भय-सा लग रहा है। कुछ देर बाद हम अपने- अपने घरों की ओर रवाना हो गए।

घरवालों को उपदेश देने का इससे अच्छा अवसर और कौन-सा मिलता ! यह उम्र पिकनिकों की नहीं रही, अब तो घर पर बैठकर ही आराम करना चाहिए। जो थोड़ी-सी शक्ति बची है, उसे राम-नाम में हो खर्च करना चाहिए. मैं चुपचाप उनकी बातें सुनता रहा, कभी क्रोध नहीं आता था, केवल ऊब और उदासीनता की भावना ही उभर आती।

घर पर उस रात को हम लोगों पर जो गुजरी वह यद्यपि किसी ने दूसरों को नहीं बतलाया, लेकिन मेरा अनुमान है कि उन घटनाओं को यदि लिखा जाए तो उनमें अधिक अन्तर नहीं होगा। पर लौटते वक्त कोशिश करने पर भी मेरे पाँव सीधे नहीं पड़ रहे थे। जब सब एक साथ थे, तो दूसरों को भी अपनी ही स्थिति में देखकर साहस बँधा हुआ था। लेकिन अकेले रह जाने पर ऐसा लगा जैसे अंधेरे में अकेला रास्ता खोज रहा होऊ। ऐसा जान पड़ता था कि दिन में खाया भोजन हजम होने के बदले गले तक आ गया हो। दिल तेजी से धड़कने लगा था।
मकान को सीढ़ियां चढ़ने से पहले क्षण-भर तक नीचे ही रुका रहा। ऊपर चढ़ने के लिए मन साथ नहीं देता था, लेकिन और कोई चारा भी नहीं था।
उस रात को घर में कुछ खाया-पिया नहीं थकान का बहाना करके जाते ही लेट गया। जो कोई बात करने आया भी तो उसे ‘हाँ- ना’ का जवाब देकर टाल दिया। लेकिन एक बार लेट जाने के बाद ऐसा जान पड़ा, जैसे सारा घर एक छोटा-सा दायरा बनकर बड़ी तेजी से घूमे जा रहा हो। आंखें बन्द करने सोने की कोशिश भी की, लेकिन उस छोटे से मकान में बच्चों का शोरगुल, बड़ों की बातचीत ऐसी लग रही थी जैसे लाउडस्पीकर द्वारा कोई हल्ला कर रहा हो। मन में यह डर बना हुआ था कि किसी को पता न चल आए कि मैं शराब पीकर पर लौटा हूं, लड़कों और बहुओं पर इसका प्रभाव पड़ेगा, इसकी कल्पना मे हो मेरा सारा शरीर सिहर उठता था।
लेकिन बात छुपी नहीं रह सकी। रात को पेट में ऐसा दर्द हुआ कि सब घरवाले मेरी चारपाई के पास आकर इकट्ठा हो गए। शायद मेरी दबी चीखों को सुनकर उन्होंने अनुमान लगाया कि मेरा अन्तिम समय समीप आ गया है। चूरन की गोलियाँ खाई, फिर अमृतधारा पी, मेरी स्त्री ने कोई तेल गरम करके मेरे पेट की मालिश की, लेकिन दर्द वैसा का वैसा ही बना रहा। एक बार गुसलखाने तक गया तो मितली आ गई, आंखों के सामने – सा छा गया, दोनों लड़के मुझे सहारा देखकर गुसलखाने से कमरे तक लाए। स्त्री डॉक्टर बुलाने को कहने लगी, लेकिन शायद लड़कों ने डॉक्टर की फीस बचाने के लिए उसे समझाया। मैं केवल ‘हाय राम-हाय राम’ की ही रट लगाए रहा!
लड़के और स्त्री आपस में कुछ खुसर-पुसर से कर रहे थे और सन्देह- भरी दृष्टि से मेरी ओर ताकते जाते थे। फिर बड़ा लड़का मेरे सिरहाने तक आया और खीझ भरे स्वर में धीरे से पूछा, “आज बाहर क्या खा-पीकर आए हो? कुछ पता चले तो उसका इलाज हो!!”
मैंने आँखें बन्द ही रखी और ऐसा प्रकट किया, जैसे उसकी बात सुनी ही न हो।
फिर कराहते कराहते कब आँख लग गई, पता नहीं चला उसके बाद महीना भर तक चारपाई पर ही पड़ा रहा। गठिया के पुराने रोग ने ऐसा जकड़ा कि उस दिन को पिकनिक के विचार से ही मैं काँप-सा जाता। घरवालों को उपदेश देने का इससे अच्छा अवसर और कौन-सा मिलता ! यह उम्र पिकनिकों की नहीं रही, अब तो घर पर बैठकर ही आराम करना चाहिए। जो थोड़ी-सी शक्ति बची है, उसे राम-नाम में हो खर्च करना चाहिए. मैं चुपचाप उनकी बातें सुनता रहा, कभी क्रोध नहीं आता था, केवल ऊब और उदासीनता की भावना ही उभर आती।

साभार: रामकुमार जी के कहानी संग्रह ‘समुद्र’ से

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