नरेन्द्र कोहली II
अमिताभ किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना चाहता था। वह चाहता था कि किसी प्रकार दिन व्यतीत हो जाएँ। अनुराधा यहाँ लौट आए। उसकी स्नायुओं का बोझ हल्का हो जाए और उसे यह सब सोचना ही न पड़े।
अनुराधा के आने में अभी बहुत देर थी। अभी उसे बहुत दिनों तक अकेले रहना था।
जितनी देर वह घर पर रहता, उसका ध्यान बहुधा बाहर के द्वार की ओर लगा रहता। अकसर दरवाजा खटकता और वह जाकर खोलता तो वहाँ कोई न होता। उसे लगता, उसके कान उसकी अपनी इच्छा के कारण धोखा खाते हैं। वह चाहता है कि कोई आए। क्यों चाहता है? क्या इसलिए कि उसका समय कट जाए या घर में वह अकेला है? इन दिनों नौकर भी नहीं है। वह निपट अकेला है। फिर वह किसकी प्रतीक्षा करता है? किसी विशेष व्यक्ति से मिलना हो तो वह उसके घर जाकर मिल सकता है। फिर वह किसकी प्रतीक्षा करता है, इस निपट अकेले घर में?
उस दिन दरवाजा खटकने पर उसने खोला तो एक अपरिचित लड़की को खड़े देखकर चौंका। उसने आँखों में प्रश्न भरकर पूछा, “कहिए!”
लड़की हकलाई, “आपको विम चाहिए?”
” जी नहीं।”
“आप विम नहीं यूज करते?” लड़की ने काफी प्रयत्न करके पूछा। उसने जबरदस्ती दरवाजा बंद कर दिया।
लड़की इस व्यवसाय में नई थी। काफी संकुचित हो रही थी। मुख कैसा लाल हो रहा था। पर वह स्वयं क्यों तड़प रहा है? वह क्यों जबरदस्ती दरवाजा बंद कर चला आया? किससे डरकर? वह उस लड़की को किसी बहाने से घर के भीतर भी ला सकता था। यह अलग-थलग फ्लैट ! किसी को पता भी न चलता। वह घर में अकेला भी है एकदम वह और अधिक तपता गया लड़की एकदम सुंदर नहीं थी। पर जवान तो थी। उसके द्वार पर आई थी और घर में वह अकेला था। अपनी इच्छा से दरवाजा बंद कर उसे लौटा आया है, फिर वह पछता क्यों रहा है?
बुरी बात है, उसने सोचा-अनुराधा उसकी पत्नी है। वह उससे प्रेम करता है। वह और किसी के प्रति ऐसा व्यवहार नहीं रख सकता। उसे शर्म आनी चाहिए। अनुराधा सुनेगी तो क्या कहेगी। पर उसने अनुराधा के डर से नहीं, अपने ही डर से ऐसा किया था और फिर यदि वह अनुराधा से प्रेम करता है तो अकेले घर में एक अपरिचित लड़की को अपने सम्मुख खड़े देख वह इस प्रकार तप क्यों उठा था?
काफी लंबी और तीव्र प्रतीक्षा के बाद उसे सूचना मिली, ‘पुत्र के जन्म पर बधाई।’ बच्चे के विषय में बहुत सारी बातें मन में उभरीं, पर सबसे ऊपर एक ही विचार था, अब वह अनुराधा को ले आएगा। बहुत दिन हो गए हैं, अब और रुकना उचित नहीं है। उसने हिसाब लगाया, इक्कीस दिनों तक सारी रीतियाँ समाप्त हो जाएँगी, बाईसवें दिन अनुराधा वहाँ से चल सकती है। पिताजी को पत्र लिखकर सूचित कर दिया कि वह बाईसवें दिन अनुराधा को ले आएगा। वह उनकी टिकटें बुक करवा दें। वह ठीक समय पर कानपुर पहुँच जाएगा।
बीच का अंतराल उसने कलेंडर की तारीखें काट-काटकर बिताया। कानपुर पहुँचकर वह अनुराधा और बच्चे से मिला। कोई असामान्य बात नहीं लगी। अनुराधा अन्य माँओं के ही समान बच्चे को छाती से लगाए दूध पिला रही थी। बच्चा चिपककर दूध पी रहा था, सामान्य सा बच्चा था, जो कभी-कभी हँसता हुआ प्यारा भी लगता था और बहुधा रोता हुआ बदसूरत तथा घृणित भी लगता था।
अनुराधा इतने दिनों में काफी दुनियादारी सीख गई थी। बच्चे के लिए खरीदी गई नई दरी, खेसियाँ, चादरें और उसकी फ्राकें इत्यादि उसने सँभाल रखी थीं। बच्चा पुराने-फटे खेसों में ही लिपटा पड़ा रहता था। अभी बच्चा छोटा था, इसलिए बहुत कपड़े गंदे करता था। वह नहीं चाहती थी कि नए कपड़े खराब हों। इसलिए जो पुराने कपड़े यहीं छोड़ जाने थे, वह उन्हीं से काम चला रही थी। अन्य कपड़े वह दिल्ली में काम में लाएगी।
तैयारी पहले से हो चुकी थी। एक दिन वह वहाँ रुका भी, वह रास्ते की योजनाओं में बीत गया। रात भर उन्हें गाड़ी में रहना था बच्चे की तबीयत भी में ठीक नहीं थी। वह बहुत टट्टियाँ कर रहा था। दवा साथ रख ली थी। पर वह कोई रामबाण तो थी नहीं। माँ ने अनुराधा को रास्ते के लिए बहुत सारे निर्देश दिए। पिताजी ने अमिताभ को समझाया और वे घर से विदा हुए।
उनका कूका आरक्षित था। तकलीफ नहीं थी, पर गाड़ी के चलते ही हवा तेज और ठंडी हो गई थी। अनुराधा ने बच्चे को अच्छी तरह लपेट-लपाट दिया। अमिताभ ने उठकर सारी खिड़िकयाँ बंद कर दीं।
गाड़ी चल रही थी। कूपे में वे दोनों अकेले थे और कूपे की सारी खिड़कियाँ दरवाजे बंद थे। अमिताभ का शरीर सहसा तप उठा। उसने अनुराधा का मुख हाथों में ले लिया। अनुराधा में कोई प्रतिक्रिया न हुई। वह उसी प्रकार बुत बैठी रही। ‘उदास क्यों हो, अनु?” अमिताभ ने अपने रक्त के आवेश को संयत करते हुए पूछा।
” इसकी तबीयत ठीक नहीं है।” अनुराधा ने बच्चे की ओर देखा। “दिल्ली पहुँचकर ठीक हो जाएगा।” अमिताभ ने उसे आश्वासन दिया, “किसी अच्छे डॉक्टर को दिखा देंगे।”
वह अनुराधा से सटा बैठा था, पर उसे अपने शरीर के तपने का ही आभास था। अनुराधा में कोई परिवर्तन नहीं आया था।
बच्चे ने फिर टट्टी की थी। अनुराधा ने उसे उसी गंदे नैपकिन से साफ किया और धुला हुआ नैपकिन बाँध दिया। वह गंदे नैपकिन को तर्जनी और अँगूठे के नखों में लटकाए इधर-उधर ताकती रही।
“क्या है?” अमिताभ चाहता था, अनुराधा इस सबसे जल्दी-से-जल्दी निबट ले और वह अपना प्यार जताए ।
“इसका क्या करूँ?” अनुराधा ने नैपकिन की ओर आँखों से संकेत किया। “जाओ, धो लाओ।” “मुझसे नहीं होता।” अनुराधा ठुमककर बोली, “यह रात भर टट्टियाँ करता
रहे और मैं उन्हें धोती रहूँ।”
“तो फेंक दो!” अमिताभ का स्वर उत्तेजित था।
अनुराधा ने सिर उठाकर उसे देखा। उसकी दृष्टि में कोई भाव नहीं था। बोली, “इस प्रकार फेंकने लगी तो दिल्ली पहुँचते-पहुँचते इसके पास एक भी नैपकिन नहीं रहेगा।”
अमिताभ उसे घूरता रहा, “तो क्या करोगी?”
अनुराधा सोचती रही, फिर बोली, “इसे तो फेंक ही देती हूँ।” उसने खिड़की का पट थोड़ा सा उठाकर नैपकिन बाहर फेंक दिया और मुड़ती हुई बोली, “इस ट्रंक को बर्थ के नीचे से बाहर खींचकर जरा खोल दो।”
“उसका क्या करना है अब?” अमिताभ अपनी खीझ रोक नहीं पा रहा था। “कोई पुराना कपड़ा निकाल लूँ।” अनुराधा बोली, “उसी को फाड़-फाड़कर काम चलाऊँ। नैपकिन बनाती जाऊँगी और गंदे होने पर फेंकती जाऊँगी।”
अमिताभ अनिच्छा से उठा और ट्रंक को बर्थ के नीचे से घसीटकर उसका ताला खोल दिया। कुंडा पकड़कर ढक्कन उठाया और बोला, “लो, निकाल लो।” अनुराधा ने कपड़ों को उलटा-पुलटा। ऊपर-ऊपर ज्यादातर उसकी शादी की रेशमी साड़ियाँ थीं। उन्हें निकाल-निकालकर वह बर्थ पर ढेर लगाती गई और फिर उसने नीचे से एक लाल बॉर्डर वाली सफेद साड़ी निकाली। उसे उलट-पलटकर देखा और बोली, “यही ठीक रहेगी।” बाकी साड़ियाँ भीतर डालकर बक्स बंद कर दिया। अमिताभ ने ध्यान से साड़ी देखी और उसका मन भीतर ही भीतर भुरभुरा गया। उसने कुछ कहा नहीं, चुपचाप एक-एक साड़ी उठाकर ट्रैक में पटकता गया। सारा सामान उसमें ढूँसकर उसमें ताला जड़ा और पैर की ठोकरों से उसे बर्थ के नीचे धकेल दिया।
उसने एक नजर अनुराधा पर डाली। उसका ध्यान अमिताभ की ओर नहीं था। उसने साड़ी में से एक चौकोर टुकड़ा फाड़ लिया था। उसे दोहरा कर उसने तिकोन बनाया और नीचे के किनारे पर फाड़कर उसे बाँधने का प्रबंध कर लिया। वह बड़ी मग्न होकर बच्चे को नैपकिन बाँध रही थी।
अमिताभ ने गले की थूक निगली और चुपचाप ऊपरी बर्थ पर चला गया। उसे नीचे झाँकने की हिम्मत नहीं हुई। रात भर वह साड़ी के फटने के स्वर और खिड़की का पट खोलकर नैपकिन बाहर फेंकने की आहट सुनता रहा। पर उसने अनुराधा से कोई बात नहीं की।
सवेरे अनुराधा ने ही उसे आवाज लगाई, “अब उठो भी। दिल्ली आ रही है।” वह नीचे उतरा। अनुराधा से बिना आँखें मिलाए उसने चीजें समेटीं। अटैची केस बंद किया, बिस्तर बाँधा और हाथ झाड़कर खड़ा हो गया। “नीचे-ऊपर तो देख लो!” अनुराधा बोली, “कुछ छूटा तो नहीं?”
उसने पहले ऊपर की बर्थ को देखा, जहाँ वह रात को लेटा हुआ था। वहाँ कुछ नहीं था। फिर नीचे की बर्थ के नीचे झाँका। वहाँ कोई कपड़ा सा लटक रहा था। उसने हाथ बढ़ाकर कपड़ा खींच लिया। यह लाल बॉर्डर था-सफेद साड़ी, शायद रात भर में टुकड़े-टुकड़े करके बाहर फेंकी जा चुकी थी।
अमिताभ ने दाँत भींचकर, बाएँ हाथ से खिड़की का पट उठाया और दाएँ हाथ से सफेद साड़ी का लाल बॉर्डर कहीं दूर फेंक दिया। गाड़ी धीमी होती होती दिल्ली के प्लेटफार्म नंबर ग्यारह पर आकर रुक गई।
*समाप्त *
साभार: ‘नरेन्द्र कोहली की लोकप्रिय कहानियां’ , प्रभात प्रकाशन
Leave a Comment