रामकुमार II
इस बात को हम सभी जानते थे कि हमारे पीठ-पीछे हमारे घर वाले हमारी पिकनिक की बात को लेकर हमारा मजाक उड़ाया करते थे। लेकिन कभी इस विषय पर हम दोस्त आपस में खुले रूप से बात नहीं करते थे, जबकि इसका आभास, अधिक या कम मात्रा में, हम सबको था । प्रकट रूप से सब यही ज़ाहिर करते कि उनके परिवारवालों को मालूम है कि आज सारा दिन कहाँ बिताया जाएगा। लेकिन यह हमारा मन ही जानता था कि पिकनिकवाले दिन जब जल्दी-जल्दी प्रातः ही स्नान करके, पूजा की अवधि को कम करके नाश्ता करते, तो सन्देह- भरी आँखों में घरवालों को दबी दृष्टि से ताका करते थे कि कहीं आज का भेद उन्हें पता तो नहीं चल गिया । जीवन की इस लम्बी और सूनी शाम की काटने की जो ऊब होती है, उसमें मनोरंजन के जो इने-गिने साधन बचे रह गये थे, उनसे हमें बहुत मोह था। शायद सोचते थे कि वर्षों पुरानी बीती स्मृतियों को फिर से हरा करने के जो अवसर मिलते हों, उन्हें कैसे छोड़ दें।
”जीवन की इस लम्बी और सूनी शाम को काटने की जो ऊब होती है, उसमें मनोरंजन के जो इने-गिने साधन बचे रह गये थे, उनसे हमें बहुत मोह था।”
ऐसे अवसरों पर बातचीत का रुख जब इधर-उधर की कलाबाजियाँ खाकर अपने अतीत पर जा टिकता, तो हम सबको मानो पर-से लग जाते थे। कभी-कभी तो अपनी ही बात कहने को सब इतने उतावले हो जाते कि. कई आवाज़ें एक साथ ही सुनाई पड़ने लगतीं और बड़ी कठिनाई से एक के अतिरिक्त दूसरों को रोक सकने में सफल हो पाते । बचपन के सुनहरे दिन, कालेज का ज़माना, जवानी के एडवेंचर, झूठी-सच्ची रोमांचकारी प्रेम- कथाएँ, ऐसा भंडार खुलता, जिसका ओर-छोर पाना कठिन हो जाता कोई हमारी बातें सुनता तो उसे विश्वास न होता कि हर सुबह हम गीता और भागवत का पाठ करते हैं, इतवार की शाम को स्वामी हरिदानन्द के उपदेश सुनने जाते हैं और साल में एक-आध बार हरिद्वार या बनारस की तीर्थ- यात्रा करते हैं
हमारी इस मंडली के बाहर जो परिचित व्यक्ति हम सबसे भिन्न थे, वह थे मि० सरकार, वह हम सबकी अपेक्षा कहीं अधिक धनी थे, उनका बहुत बड़ा मकान था, जो अत्यन्त आधुनिक ढंग से सजा हुआ था। वह अकेले रहते थे सुना था कि उनकी स्त्री का देहान्त कई वर्ष पहले हो चुका था और उनका एकमात्र पुत्र अमरीका में रहता था कई बार वह यूरोप और अमरीका के चक्कर लगा आए थे। हमसे बिलकुल भिन्न एक अलग रास्ते पर उनकी ज़िन्दगी चल रही थी। कभी-कभी उनके गुदगुदे सोफ़ों पर बैठकर उनकी कीमती सिगरेटें पिया करते थे, लेकिन कोशिश करने पर भी हम उनके समीप आने में असफल ही रहे थे।
लेकिन उस दिन न जाने क्या हुआ कि मि० सरकार के मकान पर चाय पीते समय बातों ही बातों में जब हमने उन्हें अपनी अगली पिकनिक का प्रोग्राम बतलाया, तो उन्होंने अधिक उत्सुकता दिखलाई । किसी ने कहा काश, वह भी एक बार हमारे साथ पिकनिक पर चल सकते! उन्होंने मुसकु- कि राते हुए कहा कि हम लोगों को यदि कोई एतराज़ न हो तो इस बार वह भी हमारे साथ पिकनिक पर चलेंगे। उनकी बात सुनकर आश्चर्य से हम एक-दूसरे के मुँह की ओर ताकने लगे। हम सबने अपनी प्रसन्नता और उत्साह प्रकट किया और पिकनिक का आयोजन करने लगे। हमारे दबे स्वरों के विरोध के बावजूद उन्होंने यह तय कर डाला कि उस दिन हम सब उनके मेहमान रहेंगे, यानी खाना वह सबके लिए घर से बनवाकर ले जाएँगे और यात्रा के लिए दो बड़ी टैक्सियों का प्रबन्ध किया जाएगा। पब्लिक लारी के बदले टैक्सियों में बैठकर पिकनिक जाने के विचार से ही हमारे झुर्रियों-भरे चेहरों पर एक ताज़गी-सी उभर आई और एक-दूसरे की ओर देखते हुए हम मुसकुराने लगे। ऐसी ही चौंका देनेवाली बातें मि० सरकार की होती थीं, जिनसे हम मुग्ध हो जाया करते थे
”कोई हमारी बातें सुनता तो उसे विश्वास न होता कि हर सुबह हम गीता और भागवत का पाठ करतें हैं, इतवार की शाम को स्वामी हरिदानंद के उपदेश सुनने जाते हैं…”
उस दिन के बाद सुबह की सैर को जाते हुए हमारे सामने एक ही विषय रहता था, मि० सरकार की पिकनिक, जिसकी चर्चा कभी समाप्त नहीं होती थी मि० सरकार की प्रशंसा करते वक़्त भी कभी थकते नहीं थे । दिन बहुत कठिनाई से कट रहे थे इच्छा होती थी कि पिकनिक का दिन अब जल्दी ही आ जाए । अपने-अपने घरों में सबने बड़े ज़ोर से घोषणा कर दी थी कि आगामी शुक्रवार को दिन का खाना हम घर पर नहीं खाएँगे, क्योंकि मि० ० सरकार ने हमें निमंत्रण दिया है, मोटरों में बैठकर शहर से बाहर कहीं खाना खाएँगे ।
‘पिकनिक’ शब्द का जान-बूझकर हमने प्रयोग नहीं किया अपने बेटों और बहुओं पर रोब डालने के इस अवसर से हम पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहते थे।मैं चुपके-चुपके अपनी तैयारी कर रहा था
सामनेवाले धोबी से एक कमीज़ अर्जेंट धुलवाई, अपनी पगड़ी भी स्वयं रँगी और ढेर-सा मावा लगाया। बरसों पुराना एक सूट बक्स में से निकालकर ड्राईक्लीनर को दिया, अपने नकली दाँतों की जोड़ी को रगड़-रगड़कर साफ़ किया। तब सोचता था कि मेरा हुलिया देखकर सभी दंग रह जाएँगे। लेकिन जब सब ही छैला बने दिखाई दिए तो सारा उत्साह फीका पड़ गया । सबने अपने पुराने सूट, टाइयाँ, वास्केट पहन रखे थे। लेकिन कुछ ने ड्राईक्लीनर के पैसों की बचत की थी, जिससे किसी के कोट के कालर पर मैल की एक मोटी तह जमी हुई थी, किसी की टाई का रेशम घिस जाने पर केवल अस्तर ही दिखाई दे था। जिसके पास ऐसे कपड़े नहीं थे, उसने अपने बेटे या पोते से उधार मांग लिये थे। किसी का कोट इतना तंग था कि बटन तक बन्द नहीं हो सके थे और कुछ इतने खुले थे कि कोट की लटकती बाँहों में उनके हाथ गुम हो गए जान पड़ते थे। तभी मि० सरकार की वेश-भूषा देखकर हमारे चेहरों का रहा-सहा रंग भी उड़ गया। उन्होंने कार्टराय का पुराना कोट पहन रखा था, जिसकी कोहनियों पर चमड़े की थिगलियाँ लगी हुई थीं, खाकी जीन की पैंट थी, गले में टाई तक नहीं थी, स्पोर्ट शर्ट के कालर बाहर निकले हुए थे, सफ़ेद कपड़े का फ़्लीट जूता था । उन्हें देखकर ऐसा लगा, जैसे हम नंगे खड़े हुए हों। एक-दूसरे की ओर देखने का साहस नहीं हो रहा था। लेकिन भीतर से आती हुई खाने की मीठी-मीठी सुगन्ध में हम अपनी ग़लतियों को भूल गये उनका बैरा टिफ़िन कैरियर और दूसरा सामान बाहर खड़ी दो चमचमाती टैक्सियों के भीतर रख रहा था । “वेल, सब लोग आ गये ?” “मि० सरकार ने हम सबकी ओर मुसकुरा- रहाहट-भरी दृष्टि से देखते हुए कहा । उनके मुँह में पाइप लगा हुआ था और बढ़िया तम्बाकू के जलने की खुशबू हमारे उत्साह को दूना कर रही थी । मकान के बाहर टैक्सियों के सामने खड़े होकर हम सब यह कोशिश करने लगे कि उस टैक्सी में बैठें, जिसमें मि० सरकार बैठनेवाले थे । लेकिन ऐसा होना सम्भव नहीं था । हम एक-दूसरे को धकेलकर बैठने भी लगते, यदि यह पता चल जाता कि वह किस टैक्सी में बैठेंगेसर्दियों का उजला आकाश था। तेज दौड़ती हुई टैक्सी की स्प्रिंगदार सीट पर बैठकर बाहर पैदल चलते लोगों को देखते हुए अपने भाग्य पर स्वयं ही ईर्ष्या हो रही थी। जब तक शहर की सीमा खत्म नहीं हुई, मैं खिड़की के शीशे पर अपना सिर टिकाए बाहर देखता रहा। मन-ही-मन प्रार्थना कर रहा था कि मेरा कोई रिश्तेदार या जान-पहचान का मुझे टैक्सी में बैठा देख ले। लेकिन ऐसा भाग्य कहाँ था ! शहर पीछे छूट गया । सड़क के दोनों ओर लगे ऊँचे-ऊँचे इमली के पेड़ों की छाया में हम निर्जन सड़क पर आगे बढ़ते गए।
……क्रमशः
साभार रामकुमार जी के कहानी संग्रह ‘समुद्र’ से