प्रताप नारायण सिंह II
“हे भगवान…! यह तो यहीं पर सो गया।“ वह उसे जगाने के लिए उसके पास आ गई। आनंद का बायाँ हाथ मेज पर फैला हुआ था, जिस पर उसने अपना चेहरा टिका रखा था। दाहिना हाथ नीचे लटक रहा था। वह गहरी नींद में सो रहा था। उसके मासूम चेहरे को देखकर रुचि को एकदम से उसे जगाने की इच्छा नहीं हुई। जी चाहा कि ऐसे सोते ही वह बिस्तर पर पहुँच जाए। किन्तु वह इतना छोटा नहीं था कि रुचि उसे गोद में उठाकर ले जा पाती। उसे वहाँ इस तरह से सोते छोड़ना तो बिलकुल भी ठीक नहीं था।
उसने जगाने के लिए पहले आवाज दी। पर वह नहीं जागा। फिर उसका कन्धा पकड़कर झँझोड़ते हुए जगाने लगी, “आनंद..! आनंद..!” एक बार वह कुलबुलाकर जागा और अपना सिर ऊपर उठाया। फिर अपने हाथ से रुचि का हाथ अपने कन्धे से हटाकर दोनो हाथों के ऊपर मेज पर सिर टिकाकर सो गया। अभी भी नींद में था।
“ओह, यह लड़का…हे उठो…आनंद…उठो…!” रुचि ने उसे कंधों से पकड़कर ऊपर उठाया और पीठ को कुर्सी से टिका दिया। उसका सिर बायीं ओर झुक गया। आँखें अभी भी बन्द थीं। रुचि उसके चेहरे को हाथों में पकड़कर हिलाते हुए जगाने लगी। उसने अपनी आँखें थोड़ी सी खोली और अर्धनिद्रा में बड़बड़ाया, “क्या है?” रुचि ने देखा कि वह थोड़ा जगा है, तो उसके कंधों को पकड़कर खड़ा करते हुए बोली, आनंद उठो…चलो बिस्तर पर सोओ…चलो उठो।“
वह कनमनाकर उठ खड़ा हुआ। रुचि उसे अर्ध-निद्रा की हालत में ही सहारा देकर कमरे तक ले आई और बिस्तर पर सुला दिया। बिस्तर पर पड़ते ही वह फिर से गहरी नींद में सो गया।
सुबह आन्टी जी ने आनंद को जल्दी जगाकर स्कूल के लिए तैयार किया। आठ बजे से उसकी परीक्षा थी।
दोपहर में खाने के मेज पर रात की बात सबको बताकर रुचि खूब हँसी। पहले तो उसने आनंद से पूछा, “रात में तुम कितने बजे सोने आए थे?” आनंद सोचने लगा। उसे कुछ याद ही नहीं आ रहा था। फिर रुचि ने बताया कि वह कुर्सी पर ही सो गया था।
अगले दिन शाम को जब वह पढ़ रहा था तब उसे याद आया कि जूते दिन में गन्दे हो गये थे। बिना पॉलिश किए जूते अगर पहन कर वह जाएगा तो मैम डाटेंगी। अब समस्या यह थी कि जूते कैसे पॉलिश हों? उसने पहले कभी पॉलिश नहीं किया था। किसी को कहने में झिझक आ रही थी। कुछ देर सोचता रहा। फिर तय किया कि खुद ही कर लेता हूँ। मम्मी को देखा है पॉलिश करते हुए।
बरामदे में एक स्टैंड पर सभी के जूते-चप्पल रखे जाते थे। उसने देखा था वहीं पर पॉलिश की डिबिया और ब्रश रखा हुआ था। वह उठकर बरामदे में गया और वहीं बैठकर पॉलिश करने लगा। आन्टी जी रसोई में थीं और रुचि टेलीविजन देख रही थी।
कुछ देर बाद रुचि किसी काम से बाहर बरामदे में आई। उसने देखा कि आनंद जूते पॉलिश करने की कोशिश कर रहा है। उसके दोनों हाथों में पॉलिश लगी हुई है। चेहरे से पसीना चू रहा है। काफ़ी गर्मी थी। वहाँ कोई पंखा भी नहीं था। पसीने को पोछने की कोशिश में चेहरे पर भी पॉलिश लग गयी थी।
“अरे, यह क्या कर रहे हो…?” रुचि की आवाज सुनकर उसने चौंक कर सिर उठाया। फिर बोला, ” जूते गन्दे हो गये थे।”
“अच्छा उसे छोड़ो…देखो कैसी शकल बना ली है…चलो अंदर…।
तभी आन्टी जी भी आ गयीं। आनंद का हाल देखकर उन्हें बुरा लगा। उन्होंने रुचि से कहा, “तुम जूते पॉलिश कर दो, मैं इसका हाथ-मुँह धुलवाती हूँ।“
हाथ-मुँह धुलवाते समय उन्होंने आनंद को प्यार से हिदायत दी- “बेटा, तुम्हें किसी भी चीज की जरूरत हो तो मुझसे कह दिया करो।“ बाद में उन्होंने रुचि से कहा, ” रूचि, तुम देख लिया करो कि उसे किस चीज की जरुरत है। वह कहते हुए झिझकता है।”
फिर तो रुचि ने आनंद की पूरी जिम्मेदारी ले ली। वही उसे स्कूल के लिए तैयार करती। वही बाल सँवारती, जूते पॉलिश करती, टाई बाँधती। शाम को उसके पाठ याद करवाती। उसके साथ ही खाना खाती। धीरे-धीरे यह सब करना उसे अच्छा लगने लगा। उसने आनंद के हर काम – पढ़ने, खेलने, खाने-पीने, सोने-जागने का समय निर्धारित कर दिया। अधिकतर समय उसके साथ ही रहती।
पहले दिन जब शाम को आनंद खाना खा रहा था तो रुचि ने देखा कि उसने तीन रोटियाँ खाईं। उसे तीन की संख्या ठीक नहीं लगी थी। दूसरे दिन जब फ़िर आनंद ने तीन रोटियाँ ही खाई तो उसने पूछा, “तुम हमेशा तीन रोटियाँ ही खाते हो ?”
“हाँ।“उसने उत्तर दिया।
“तीन की संख्या शुभ नहीं होती। एक और रोटी खा लो।“
“मेरा पेट भर गया है। और नहीं खा पाऊँगा।“
“रहने दे रुचि, उसका मन नहीं है तो जाने दे।“आंटी जी ने कहा। आनंद अपना प्लेट उठाकर जाने के लिए खड़ा हुआ।
“अच्छा सुनो! मुँह खोलो।“ रुचि ने कहा। आनंद ने मुँह खोला तो उसने एक कौर उसे खिला दिया दिया। फिर बोली, “ठीक है, अब जाओ।“
रुचि ने इस तरह से एक कौर खिलाने का नियम बना लिया। शुरु-शुरु में आनंद को उसके हाथ से खाते हुए हिचकिचाहट हुई। क्योंकि दूसरे के हाथ से उसे खाने की आदत नहीं थी। किन्तु जल्दी ही वह बात उसके लिए सामान्य हो गई।
आनंद की परीक्षाओं के बीच में एक-दो दिन का अवकाश होता था। छुट्टी के दिन प्रायः दोपहर में जब वह पढ़ाई से ऊबने लगता तो रुचि उसके साथ लूडो या कैरम खेलती। जिससे कि उसका मन बहल जाए। कभी-कभी झगड़ा भी हो जाता। अधिकतर झगडे़ का कारण आनंद की बाल-सुलभ बेईमानी होती।
उस दिन दोनों लूडो खेल रहे थे। एक बार जब वह हारने लगा तो रुचि की नज़र बचाकर अपनी गोटियाँ आगे बढ़ा दी। रुचि को पता चल गया और उसने यह कहते हुए खेलना बन्द दिया, “मैं तुम्हारे साथ नहीं खेलूँगी, तुम हमेशा बेईमानी करते हो”।
वह अपने बिस्तर पर लेट गई और एक बाँह मोड़कर माथे पर रख लिया। उसकी आँखें उसके हाथ से ढँक गईं।
“हारने लगीं तो भाग गईं…” आनंद ने रुचि को उकसाने के लिए कहा।
“मुझे बेईमान के साथ नहीं खेलना है।“रुचि ने लेटेलेटे ही कहा।
“मैनें कोई बेईमानी नहीं की…आपने ठीक से देखा नहीं, मेरी गोटियाँ पहले से ही वहीं थीं। आनंद का मन खेलने को कर रहा था। वह बोला, “अच्छा चलिए फिर से खेलते हैं।”
रुचि चुप रही। कुछ भी नहीं बोली। आनंद उठकर उसके पास आ गया।
“चलिए न, फिर से खेलते हैं।” उसे लगा की रुचि सच में गुस्सा हो गई है। उसने अपनी गलती स्वीकार कर ली, “अच्छा अब नहीं करूँगा।“
रुचि अब भी चुप ही रही। फिर आनंद ने उसका हाथ माथे से हटाते हुए कहा, “चलिए न…”
“मैं अब नहीं खेलूँगी, मुझे नींद आ रही है।” रुचि ने आँखें बन्द किए हुए ही कहा।
आनंद उसके पास बैठकर उसे मनाने लगा, “नींद नहीं आ रही है, आप झूठ-मूठ की सो रही हैं।“ वह रुचि की पलकों को अपनी उँगलियों से खोलने लगा। रुचि ने मुस्करा दिया। फिर हँसते हुए उठ बैठी और खेलने के लिए तैयार हो गई।
आनंद के आने के बाद रुचि का भी मन यहाँ लगने लगा था। आनन्द भी उससे खूब घुल-मिल गया था और हर छोटी बड़ी बात उसे बताता।
जब वह स्कूल चला जाता तो रुचि को कुछ खाली-खाली सा लगने लगता। वह स्कूल से लौटता तो बाल्कनी में खड़ी उसकी राह देख रही होती। शाम को जब आनंद पार्क में खेलता तो भी वह बाल्कनी में खड़ी होकर देखती रहती। अँधेरा होने से पहले रोज वहीं से आवाज लगा कर बुलाती, “आनंद, आओ दूध पी लो…। और आनंद समझ जाता कि अब खेलने का समय खत्म हो चुका है।
क्रमशः ..