धारावाहिक कहानी/नाटक

पिकनिक (भाग -2)

अश्रुतपूर्वा II

अपनी लम्बी ज़िन्दगी में जितनी पिकनिकें की थीं, याद नहीं आता कि उनमें से एक में भी मैंने इतना उत्साह अनुभव किया था । मैं दुर्भाग्य से उस टैक्सी में था, जिसमें मि० सरकार नहीं थे ।
“ये मि० सरकार भी अजीब आदमी हैं,” गुप्ता बोले ।
“हमने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि हमारे साथ पिकनिक चलने के लिए राज़ी हो जाएँगे। कभी सुबह की सैर को तो गये नहीं ।”
“और देखो, कितनी दूर लिये जा रहे हैं।”
“इनके दिमाग़ का शायद कोई पुर्ज़ा ढीला है ।”
“लेकिन हैं बहुत पैसेवाले। टैक्सियों का किराया न जाने कितना आएगा ।”
“अरे गुप्ता, यह तो बताओ कि सूट कहाँ से उधार मांगकर लाए हो ?”
हम सब हो-हो करके हँसने लगे । तभी वकील साहब ने ‘श-श’ करके सबको रोक दिया और अगली सीट पर ड्राइवर के पास बैठे मि० सरकार के बैरे की ओर इशारा किया, जिसकी उपस्थिति की ओर हमारा ध्यान ही नहीं गया था।
पिकनिक का प्रोग्राम तय हो जाने के बाद जब हमारे सामने यह प्रश्न उठा था कि कहाँ जाएँगे और हम वे सब जाने-पहचाने नाम गिनाने लगे थे, जहाँ हम पहले हो आए थे, तब मि० सरकार ने सुझाव दिया था कि पहले से ही कोई स्थान निश्चित न किया जाए, मोटरों में बैठकर बाहर निकल पड़ेंगे और जो स्थान सबसे अच्छा लगेगा, वहीं डेरा डाल लेंगे। उनके अद्भुत प्रस्ताव का सबने पूरा अनुमोदन किया था।
मि० सरकार को कुछ पुराने खंडहरों में घिरा एक टीला पसन्द आया और हमने भी अपनी सहमति प्रकट की, यद्यपि हम कभी पुरानी मस्जिद या मक़बरों के पास अपनी पिकनिकें नहीं करते थे। उनके बीच में हमें डर-सा लगता था, उन खंडहरों में हमें अपने गिरते, बेडौल शरीर, अपनी झुर्रियाँ,अपनी उभरी हड्डियाँ दिखाई देती थीं। ये भाव मि० सरकार पर कैसे प्रकट करते?
“वेल, मेरे खयाल में यह पिकनिक के लिए बहुत उपयुक्त स्थान है,” मि० सरकार टैक्सी में से उतरकर टाँगों को सीधा करते हुए चारों ओर बिखरे खंडहरों की खामोशी को देखते हुए बोले।
मि० सरकार के साथ-साथ हम भी उन खंडहरों की खामोशी में टीले पर चढ़ने लगे। तभी वकील साहब ने धीमे स्वर में मुझसे कहा, “यह बैरा हमारी ओर देखकर मुस्कुरा रहा है। इससे मुझे बहुत डर लगता है।”

“यद्यपि हम कभी पुरानी मस्जिद या मक़बरों के पास अपनी पिकनिकें नहीं करते थे। उनके बीच में हमें डर-सा लगता था, उन खंडहरों में हमें अपने गिरते, बेडौल शरीर, अपनी झुर्रियाँ, अपनी उभरी हड्डियाँ दिखाई देती थीं।”

इस बैरा की उपस्थिति में हम सब बहुत घबराते थे, क्योंकि उसे हमारी वास्तविकता के कितने ही भेद मालूम थे । सुबह जब हम थैले लटकाए सब्ज़ी खरीदने जाते, तो प्रायः उससे मुठभेड़ हो जाती थी। कितनी ही बार वह हमें दो-चार पैसों के लिए झगड़ा करते हुए देख चुका था, जबकि वह दूकानदार के मुँह-माँगे दाम दिया करता था जब कभी हमारे सब्जी खरी- दते वक्त वह भी पहुँच जाता, तो सब्ज़ीवाला हमें बीच में ही छोड़कर पहले उस बैरा को निपटाया करता और हम चुपचाप यह अपमान सह लिया करते थे।
टीले के ऊपर पहुँचकर एक पेड़ की छाया में मि० सरकार ने अड्डा जमाने का फ़ैसला किया। चारों ओर दूर-दूर तक फैला सन्नाटा, ऊबड़-खाबड़ झाड़ियाँ, पत्थरों के ढेर, बिना छत की कोई इमारत, जिसकी खिड़की में से आकाश दिखाई देता था, पुरानी कब्रें और जब कभी हवा तेज़-तेज़ चलती तो धूल के गुब्बारे ऊपर उठ जाते थे हमें यह वातावरण अजीब-सा लगा । मि०  सरकार पर क्रोध आया लेकिन यह भावना हमने अपने चेहरों पर प्रकट नहीं होने दी। पेड़ की छाया में दो दरियाँ बिछा दी गईं। मि० सरकार के चेहरे पर उत्साह झलक रहा था। उन्होंने ‘ब्लेक एंड व्हाइट’ सिगरेटों का एक टिन हम सबके बीच रख दिया और पाँव फैलाकर कोहनियों का सहारा लिए अधलेटे-से हो गए। हम सिकुड़े हुए बैठे रहे मेरे पास बैठे गुप्ता ने धीमे स्वर में कान में कहा, “इन खंडहरों मेंआकर पिकनिक का सारा मजा किरकिरा हो गया।”
मैंने क्रोध में उनका हाथ झटक दिया, जिससे कुछ और कहने का साहस उन्हें नहीं हुआ।
“रेडियो सुनियेगा ?” फिर बिना हमारे उत्तर की प्रतीक्षा किए पास ही घरा एक छोटा-सा डिब्बा खोल दिया, जिसमें से धीमे स्वर में निकलते संगीत को सुनकर हम आश्चर्य से उनकी ओर देखने लगे। यह बैटरी से चलता है। मेरे लड़के ने पिछले साल अमरीका से भेजा था।” हमें विश्वास नहीं हो रहा था कि बिना बिजली के तार के यह संदूकड़ी कैसे रेडियो हो सकती है ? ऐसी ही चौंका देने वाली बातें मि० सरकार की होती, जिनसे हम अत्यन्त प्रभावित हुआ करते थे। मुझे भूख लगनी शुरू हो गई थी, क्योंकि सुबह जल्दी में पूरी तरह से नाश्ता नहीं कर सका था, हर क्षण यह डर लग रहा था कि मुझे छोड़कर कहीं ये सब पिकनिक पर न चले जाएँ। अब घूम-फिरकर अपने-आप ही दृष्टि खाने से भरी पिटारी और टिफिन-कैरियरों पर जा रुकती थी
बातें मि० सरकार ही कर रहे थे। हम सब जिज्ञासा-भरी दृष्टि से उनकी ओर देख रहे थे, मानो कोई दिलचस्प कहानी सुन रहे हों। बीच-बीच में प्रश्न भी पूछते जाते थे, जिससे अपनी उपस्थिति का ज्ञान उन्हें बना रहे । अपनी दैनिक जिन्दगी की साधारण-सी घटनाओं का जो हमारे लिए महत्त्व रहता था और जिनकी सदा हम एक-दूसरे से चर्चा किया करते थे, उनसे कहीं दूर मि० सरकार की बातों में हमें एक ऐसी नवीनता मिलती थी कि समय का पता ही नहीं चलता था। जिस लन्दन, न्यूयार्क और पेरिस के हमने केवल नाम ही सुन रखे थे, उनके बारे में वह इस प्रकार बातें करते थे, मानो बरसों वहाँ रहे हों।
उनकी बात सुनते वक्त सदा ही ऐसा लगता था कि अपनी ज़िन्दगी व्यर्थ ही बीत गई। दिन-भर दफ्तर में बैठे-बैठे अपनी जिन्दगी के चालीस साल बिताकर जब रिटायर होने का दिन आया तो जैसे आँख खुली। तबदेर हो चुकी थी फिर अगला जीवन सफल बनाने की तैयारी करने लगे, लेकिन मन अशान्त ही रहता था।
कुछ देर बाद मि० सरकार ने दूर बैठे बरे को बुलाकर पास ही रखी एक डलिया खोलने को कहा और स्वयं भी उठकर बैठ गए। “वेल, कुछ पीना चाहिए।”

“क्या वाक़ई पेरिस दुनिया का सबसे खूबसूरत शहर है ?” फिर तो हमारे प्रश्नों का ऐसा ताँता लगा कि जान पड़ता था मानो विदेशों के विषय में हम अपना सारा ज्ञान प्रश्नों के रूप में प्रकट कर देंगे ।”

बैरे ने डलिया में से शीशे के चमकते हुए गिलास निकालकर दरी पर रख दिये और तीन-चार सोडे की बोतलें खोलीं, जिनके खुलने का धमाका उस सन्नाटे में तोप के छूटने के स्वर-सा लगा मि० सरकार ने स्वयं पतले कागज में लिपटी स्काच ह्विस्की की एक पूरी बोतल निकाली और हमारे गिलास भरने लगे, हमें ‘हाँ-न’ करने का अवसर ही नहीं मिला। बैरा हमारे हाथों में गिलास थमाता रहा और सोडा उँडेलता रहा। उससे आँखें मिलाने का साहस हममें नहीं था। पहले भी एक-आध बार मि० सरकार ने अपने घर पर बीयर या ह्विस्की पिलाई थी, लेकिन यह हमने कभी नहीं सोचा था कि आज के दिन पिकनिक पर भी वे उसका प्रबन्ध करेंगे। शराब पीकर लौटने की कल्पना दूभर थी, लेकिन शायद सबने यह सोचा होगा कि थोड़ी- सी पीकर सारा दिन यहाँ बिताने के बाद न नशा रहेगा, न मुँह में बू, घर में किसी को पता तक नहीं चलेगा।
हम सबमें एक नई स्फूर्ति आ गई। पहले घूंट ऐसे लगे, जैसे हम ज़मीन से थोड़ा ऊपर उठ गए हों। बैरे ने चार प्लेटों में तले हुए नमकीन काजू हमारे सामने रख दिये थे अब तक हमारी झिझक दूर हो गई थी और मि० सरकार के पूछने के पहले ही हम उनके टिन में से सिगरेट निकालकर लगातार पी रहे थे।
“आपने तो सारी दुनिया देखी है, मि० सरकार, अपने बतलाइए।” वकील साहब बोले, उनका दिमाग़ हमसे कहीं अधिक तेजी से दौड़ता था कुछ अनुभव “क्या वाक़ई पेरिस दुनिया का सबसे खूबसूरत शहर है ?” फिर तो हमारे प्रश्नों का ऐसा ताँता लगा कि जान पड़ता था मानोविदेशों के विषय में हम अपना सारा ज्ञान प्रश्नों के रूप में प्रकट कर देंगे । मि० सरकार चुप थे, कभी-कभी हमारी ओर देखकर मुसकुरा-भर देते थे । उन्होंने अपने गिलास में थोड़ी-सी ह्विस्की उँडेल ली । हमारे गिलासों की ओर उनका ध्यान नहीं गया हमने भी अपने गिलास जल्दी ही खाली कर दिये और अपने से ज़रा आगे दरी पर रख दिए, जिससे मि० सरकार की दृष्टि बिना किसी कठिनाई के उन पर जा पड़े।
उनकी बातों से पता चला कि जैसे उनका ध्यान कहीं और हो, शायद अपने विदेश के अनुभवों को वे हम पर प्रकट नहीं करना चाहते थे, हमने भी इस विषय को आगे नहीं बढ़ाया।
“अच्छा, मि० सरकार, एक बात बतलाइए,” वकील साहब अपने नकली दाँतों की जोड़ी को सँभालते हुए बोले, “क्या अगले जन्म में आपका विश्वास नहीं है?”
उनका प्रश्न सुनकर मि० सरकार तनिक चौंके और हम सबको भी कम आश्चर्य नहीं हुआ । कितनी ही बार हम परस्पर इस विषय पर बहसें भी कर चुके थे, कुछ की राय थी कि मि० सरकार नास्तिक हैं, धर्म में उनका विश्वास नहीं है, कर्म की थ्योरी को भी वे नहीं मानते और वह सोचते थे कि उनके विचार हम लोगों से अलग नहीं हैं, अन्तर केवल इतना ही है कि वह यूरोप की फिलासफ़ी के अधिक निकट हैं और उसी ढंग से सोचते हैं। मि० सरकार थोड़ा हँसते हुए बोले, “विश्वास है या नहीं, उससे तो कोई फ़रक नहीं पड़ता, “ह्विस्की का एक घूंट गले के नीचे उतारते हुए कहने लगे, “जो लोग विश्वास करते हैं और जो नहीं करते, उनकी दिनचर्या में तो कोई विशेष अन्तर दिखाई नहीं दिया।”
इस विषय में पंडितजी अपने-आपको हमारी अपेक्षा अधिक विद्वान् समझते थे, क्योंकि संस्कृत का अच्छा ज्ञान था वह गिलास हाथ में थामे बैठे-बैठे ही थोड़ा आगे खिसक आये, “दूसरा जन्म होता है, यह बात हमारे शास्त्रों में भी लिखी हुई है, जिसे आज के लोग न मानें तो बात दूसरी है।”
मि० सरकार ने हँसते हुए पंडितजी की ओर देखा, “शास्त्रों की बात तो मैं नहीं जानता, क्योंकि मैंने उनका गहरा अध्ययन नहीं किया है, लेकिन साइंस ने हमारे बहुत-से भ्रमों को दूर कर दिया है। फिर शास्त्रों का असली मतलब समझनेवाले लोग कहाँ दिखाई देते हैं?”
बहस कुछ और देर तक आगे बढ़ी, लेकिन कोई उसमें उलझा नहीं । इस अवसर पर हम किसी ऐसे विषय पर बातचीत नहीं करना चाहते थे, जहाँ मि० सरकार और हममें मतभेद हो हम सबको चुप-सा देखकर मि० सरकार बोले, “अब देखिए न, हम लोग पिकनिकें करते हैं, शराब पीते हैं, सिनेमा देखते हैं···अगले जन्म का इन सबसे क्या सम्बन्ध हो सकता है ? जो सामने है, जो क्षण हम जीते रहते हैं, उससे बड़ा सत्य और कोई हो सकता है, इस पर मुझे विश्वास नहीं है।”
हम सबके चेहरे क्षण-भर के लिए फ़क-से रह गए। उनका इशारा हमारी ओर ही था, यह सब समझ गए। लेकिन अगले ही क्षण जब हँसकर उन्होंने हमारे गिलास भर दिये, तो तुरन्त ही हमने उस बात को भुला दिया।
ह्विस्की का नशा कहाँ-से-कहाँ पहुँच गया, इसका पता हममें से किसी को नहीं लगा। सबमें यही होड़ लगी हुई थी कि कौन अपना गिलास सबसे पहले खाली करता है मि० सरकार की आँखों में एक प्रकार की चमक-सी उतर आई थी। वह लगभग हमारी ही उम्र के थे, लेकिन उनका शरीर अब भी कितना सुडौल और मज़बूत था ! आँखों पर ऐनक नहीं थी, असली दाँत अभी तक मजबूत थे, चेहरे का मांस हमारी तरह झूलता-सा दिखाई नहीं देता था, गुप्ता और वकील साहब की भाँति उन्हें बालों में खिजाब लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। उन्हें देखकर ऐसा लगता था, जैसे उनकी कोई इच्छा अपूर्ण न रही हो। सब पैसे की माया थी। अपने संघर्षों- भरे जीवन पर दृष्टि डालकर हम सोचते थे कि अगले जन्म में हमारी सब अतृप्त इच्छाएँ पूरी हो जाएँगी। जब तक यह नशा रहता, तब तक हम अपनी पूजा में अधिक समय व्यतीत करते ।यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं थी कि उस दिन बिना ऊबे हम मि० सरकार की बातें सुने जा रहे थे, वरना हमारी यही कोशिश रहती थी कि दूसरों की बातें कम सुनें, केवल अपनी ही कहे जाएँ।
ह्विस्की की बोतल खाली हो जाने पर सबने ऐसा महसूस किया, जैसे पिकनिक ही खत्म हो गई हो। ऐसा लग रहा था, जैसे एक-आध गिलास और पी लेने पर हमारी तृप्ति हो जाती और हम उस अवस्था में पहुँच जाते, जहाँ इन्सान सब-कुछ भूल जाता है लेकिन ऐसा भाग्य कहाँ था ! मि० सरकार पर थोड़ा गुस्सा भी आया कि क्यों वह एक ही बोतल लाये । इससे तो कुछ भी न लाते तो अच्छा था खंडहरों के श्मशान-जैसे सन्नाटे में हम चुप बैठे-बैठे ऊबने-से लगे।
“उस डलिया में शायद और कुछ भी है मि० सरकार अभी निकालेंगे ।” मेरे पास बैठे गुप्ता ने फुसफुसाते हुए कहा । “अब कुछ नहीं है होता तो अब तक निकाल लेते।” मैंने क्रोध और खीझ भरे स्वर में कहा।

”हममें से कोई डायबेटिज़ का शिकार था, कोई गठिया का, किसी को पेशाब की बीमारी थी, किसी को पेचिश की सबका एक ही इलाज था, खाने के कड़े नियमों का पालन, कम-से-कम घरवाले इसी को महत्त्व देते थे, जिसकी सचाई को जानते हुए भी कभी- कभी हमारी ज़बान सारे बन्धन तोड़कर मुक्त हो जाती।” 

मि० सरकार कब बोलते-बोलते चुप हो गये, यह हमको पता नहीं चला बोतल ख़त्म होने के साथ-साथ उनकी बातों में भी हमारी दिलचस्पी खत्म हो गई थी। लेकिन इसका आभास हमने उन्हें नहीं होने दिया था । धूप अधिक तेज़ हो जाने के कारण मि० सरकार ने अपना कोट उतार दिया था और कमीज़ की बाँहें भी कोहनियों तक मोड़ ली थीं। उनकी देखा-देखी हममें भी बेतकल्लुफ़ी आ गई थी और जिसकी पेंट की कमर बहुत तंग थी, उसने ऊपर का बटन खोलकर कसे हुए पेंट को मुक्ति दे दी थी, जिनकी कमीजों की बाँहें साबुत थीं, उन्होंने बिना किसी झिझक के अपने कोट उतार दिए थे। ह्विस्की के बाद अब खाने का आकर्षण बना हुआ था, जिसकी बात सोच-सोचकर अब फिर भूख लगनी आरम्भ हो गई थी। रेडियो पर विदेशी संगीत सुनकर ऐसी इच्छा हो रही थी कि सूई घुमाकर रेडियो सीलोन पर टिका दें, जहाँ से हमेशा नये फ़िल्मी रेकार्ड बजा करते हैं। ऊबते हुए मि॰ सरकार के उस वाक्य, ‘वेल, अब खाना चाहिए’ की उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगे, जो शीघ्र ही हमें सुनाई दिया।
अपने-अपने घरों में भोजन के विषय में जो हम पर कड़े बन्धन लगे हुए थे, उनसे छुटकारा पाने का जो अवसर मिलता, उसका पूरा लाभ उठाया करते थे, लेकिन यह भय बना ही रहता था कि उसके बाद कहीं जरा-सी भी गड़बड़ी हुई तो सब घरवाले एक होकर यही कहेंगे कि बाहर अंट-संट खाने का ही यह परिणाम है। हममें से कोई डायबेटिज़ का शिकार था, कोई गठिया का, किसी को पेशाब की बीमारी थी, किसी को पेचिश की सबका एक ही इलाज था, खाने के कड़े नियमों का पालन, कम-से-कम घरवाले इसी को महत्त्व देते थे, जिसकी सचाई को जानते हुए भी कभी- कभी हमारी ज़बान सारे बन्धन तोड़कर मुक्त हो जाती।
आज मि० सरकार के टिफ़िन कैरियर खुलते ही जब मसालों की सुगन्धि हम तक पहुँची, तो क्षण-भर में सारे नियम भूल गए। ललचाई, दबी दृष्टि से बैरे को सब सामान निकालते हुए चुपचाप देखते रहे यह भी भूल गए कि बैरे को इसका आभास नहीं होना चाहिए, नहीं तो महल्ले-भर में जो बातें वह फैलाएगा, उससे हमारी हँसी उड़ेगी।
वह एक प्रकार का बफ़े लंच ही था बैरे ने हम सबके सामने चमकती हुई सुन्दर डिजाइनवाली प्लेटें, नेपकिन, काँटे, छुरियाँ और गिलास रख दिये और बीच में पुलाव, पूरियाँ, गोश्त, सब्जी, अचार, खीर आदि अलग- अलग तरतीबवार सजा दिया और फिर हमसे कुछ फ़ासले पर एक बड़े-से पत्थर पर जा बैठा, मानो किसी तमाशे का इन्तज़ार कर रहा हो।
हमलोग एक गोल दायरा-सा बनाकर बैठ गए, जिससे बीच में रखे खाने से किसी की दूरी न रहे, और किसी चीज़ की ज़रूरत पड़ने पर वह केवल अपना हाथ बढ़ाकर अपनी प्लेट को इच्छानुसार भर ले । शुरू-शुरू में ऐसा लगा था, जैसे हमारी भूख और ललचाई दृष्टि इतने खाने से तृप्त नहीं हो सकेगी, लेकिन जब जल्दी ही खाने लगे, तो पेट भी तेज़ी से भरने लगा इतने स्वादिष्ट पदार्थ खाए एक लम्बा अरसा बीत गया था यद्यपि हम सब शाकाहारी होने का दावा करते थे, लेकिन मुर्गी के गोश्त के नरम-नयम टुकड़े और कोफ़्तों के ऊपर तैरती हुई लाल तरी को देखकर कोई क्षण-भर के लिए भी इस दुविधा में नहीं पड़ा।

क्रमशः ….

साभार: रामकुमार जी के कहानी संग्रह ‘समुद्र’ से

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