वीणा कुमारी II
जब पेड़ के पत्तों से
टप टप टपकती है
बारिश की बूंदें
तो निहारती रहती हूं उसे
और भूल जाती हूं अपने सारे गम
अहले सुबह आकाश में
जब सूरज धीमे धीमे
बिखेरता है सुर्ख चटकीला सिंदूरी रंग
तो निहारती रहती हूं उसे
और भूल जाती हूं अपने सारे गम
सांझ के धुंधलके में
जब पूंछ उठाकर दौड़ती गैया
बेचैन हो उठती है
अपने बच्चे से मिलने को
तो निहारती रहती हूं उसे
और भूल जाती हूं अपने सारे गम
रंग बिरंगे फूलों का
रसपान करते भौंरे
जब आकंठ डूबे होते हैं
प्रेम की उत्कंठा में
तो निहारती रहती हूं उसे
और भूल जाती हूं अपने सारे गम
गमों को भुलाना इतना आसान नहीं
पर ईश्वर ने दे रखा है
यह नेमत
सिर्फ और सिर्फ प्रकृति को
जो किसी को भी अपना
गम भूलने पर मजबूर कर दे…..