आलेख कथा आयाम

संस्कृत साहित्य में प्रेमतत्त्व: आदिकाव्य रामायण की उद्गमभूमि (प्रथम भाग)

प्रो रमाकांत पांडेय II

“प्रीञ् “तर्पणे (प्रसन्न करना ) धातु से “प्रिय” शब्द बना है। इस “प्रिय” शब्द से भावार्थक “इमनिच् “ प्रत्यय करने से “प्रेम” शब्द निष्पन्न होता है । संस्कृत में प्रेम शब्द पुंल्लिंग और नपुंसक लिंग दोनो में प्रयुक्त होता है । साहित्य का परम प्रयोजन समाज में पारस्परिक प्रेम और अनुराग का आविष्कार करना ही है। भामह ने “ करोति कीर्तिं प्रीतिं च साधु काव्यनिषेवणम् “कह कर इस तथ्य को स्पष्ट किया है। प्रेम शब्द का अर्थ है -स्नेह, अनुराग, अनुरक्ति आदि। अमरकोशकार ने प्रेम,प्रियता, हार्द और स्नेह को पर्याय माना है[i]।
इससे यह सिद्ध होता है कि “प्रिय होने का भाव “तथा“ हृदय का कर्म “ही प्रेम शब्द से अभिहित होता है। संस्कृत साहित्य में प्रेम विविध रूपों में प्रतिफलित हुआ है। यह स्त्री–पुरुष की प्रणय भावना को भी द्योतित करता है तथा आध्यात्मिक भावनाऒं पर आश्रित होकर परम पद की प्राप्ति का मार्ग भी प्रशस्त करता है। प्रेम संसार का सार है, दो प्रेमी हृदयों का निरूढ भावबन्धन है और प्रेमी या प्रेमिका की प्रसन्नता के लिये प्रेमी या प्रेमिका के द्वारा किये जाने वाले त्याग की पराकाष्ठा है। “स एकाकी न रमते। स द्वितीयमैच्छत्’ जैसे श्रुतिवचन प्रेम की सनातनता और निर्मलता को प्रमाणित करते हैं। वेदों एवं वैदिक साहित्य में दिव्य प्रेम की अनेक चर्चायें प्राप्त होती हैं। वस्तुतः प्रेम द्वैतावस्थापन्न परमेश्वर का भावात्मक बन्धन है। भावप्रकाशनकार शारदातनय ने “प्रेम” शब्द में प्रयुक्त प्र + इ+म को लेकर प्रेम को परिभाषित किया है–

इशब्दवाच्यो मदनो भाति यत्र प्रकर्षतः।
तत्प्रेम तदधिष्ठानं रतिर्यूनोः परस्परम्।।
परस्पराश्रयघनं निरूढं भावबन्धनम्।
यदेकापायतोऽपायि तत्प्रेमेति निगद्यते॥[ii]

शारदातनय के अनुसार “इ“ का अर्थ काम है। जहाँ काम की प्रकर्षता होती है, वहाँ प्रेम होता है। यह रति नामक स्थायी भाव को पुष्ट करता है। वैष्णवभक्ति सम्प्रदाय में प्रेम के स्वरूप पर विशेष विचार हुआ है। वहाँ यह अनिर्वचनीय माना गया है। प्रेम अनिर्वचनीय (गूँगे का गुड़) है, जिसके बारे कुछ कहा तो नहीं जा सकता किन्तु उसका अनुभव किया जा सकता है। उज्ज्वलनीलमणिकार ने भी प्रेम को परिभाषित किया है–

सर्वथा ध्वंसरहितं सत्यपि ध्वंसकारणे।
यद्भावबन्धनं यूनोः स प्रेमा परिकीर्तितः॥[iii]

ध्वंसकारण के विद्यमान होने पर भी जो कभी नष्ट नहीं होता, युवक और युवती का वह पारस्परिक भावबन्धन प्रेम कहलाता है।
जिस प्रकार हिमालय के उत्स से निकलने वाली कोई धारा अलकनन्दा, कोई मन्दाकिनी तो कोई भागीरथी नाम से अभिहित होती है किन्तु समतल भूमि में आकर वही तीनो धारायें एक साथ मिलकर अपने त्रिविध नाम, रूप का परित्याग कर देती हैं तथा “गङ्गा” नाम से लोक विश्रुत होती हैं । वह अपने पवित्रतम प्रवाह के संस्पर्श से अनेक तीर्थों को रचती चलती है तथा उनके माध्यम से साँसारिकों को पाप मुक्त करती है और उन्हें पवित्र करके सद्गति प्रदान करती है। गङ्गा और कुछ नहीं, मन्दाकिनी, अलकनन्दा और भागीरथी का ही एकीभूत रूप है। उसके प्रवाह के संस्पर्श से बने तीर्थों में भी गङ्गा के प्रवाह में कोई भेद नहीं होता, उसमे उस स्थान की महिमा से कुछ वैशिष्ट्य अवश्य उत्पन्न हो जाता है। उसी प्रकार प्रेम की अनुरागमयी धारा हृदय – गह्वर से निकल कर जब पुत्र, मित्र, कलत्र, पिता, माता, गुरु आदि सम्बन्धों की लौकिक स्वार्थ विषयता को धारण कर स्नेह, प्रेम और श्रद्धा रूप में प्रवाहित होती है, साँसारिकता को धारण करती है तो वह तत्तत्सम्बन्धों के कारण अनुराग, रति, अनुरक्ति आदि नामों से अभिहित होती है किन्तु जब यह प्रेम- स्रोतस्विनी अपने लौकिक नाम, रूप और स्वभाव को त्याग देती है तथा स्वार्थ रहित होकर भगवद्भावमय समतल प्रदेश में एक होकर शान्त धारा में बहती है तब वही धारा “भक्ति” शब्द से अभिहित होती है। यह भक्तिगंगा विभिन्न भावतीर्थों में तरंगायित होती हुई भगवच्चरण– महाब्धि में समाहित होकर भक्त को उसका अभीष्ट फल प्रदान करती है।

संस्कृत साहित्य में प्रेम के लौकिक और आध्यात्मिक दोनो रूपों का वर्णन प्राप्त होता है। वेदों, पुराणों, महाकाव्यों, खण्डकाव्यों तथा नाट्य साहित्य आदि में प्रेम के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। किसी राजा का अपने राष्ट्र के प्रति प्रेम, किसी प्रेमी का अपनी प्रेमिका के प्रति प्रेम, स्वामी का सेवक के प्रति, सेवक का स्वामी के प्रति, भाई का भाई के प्रति, पुत्र का माता पिता के प्रति, माता पिता का पुत्र के प्रति इत्यादि रूप से प्रेम के अनेक रूप संस्कृत साहित्य में देखने को मिलते हैं। आदिकाव्य रामायण की उद्गमभूमि प्रेम ही है। प्रणयोन्मुख क्रौञ्च युगल मे से एक के वध से विह्वल वाल्मीकि का शोक ही श्लोक के रूप में परिणत हुआ– शोकः श्लोकत्व-मागतः। प्रेम की व्याप्ति शृंगार और करुण दोनो में होती है किन्तु करुण में वह अधिक उत्कट होती हुई शोक का रूप ले लेती है। रामायण राष्ट्र आराधन और भ्रातृत्व प्रेम का अनूठा उदाहरण है। लक्ष्मण का सर्वस्व त्याग कर राम का अनुगमन करना तथा भरत का राजोचित समग्र सुख त्याग कर नन्दिग्राम में बस जाना भ्रातृत्व– प्रेम को रेखांकित करता है। शक्ति लगने से मूर्छित लक्ष्मण को देख कर राम कहते हैं–

देशे देशे कलत्राणि देशे देशे च बान्धवाः।
तं तु देशं न पश्यामि यत्र भ्राता सहोदरः॥[iv]

राम और सीता का अनन्य दाम्पत्य प्रेम किस सहृदय को चमत्कृत नहीं कर देता। सीता के शोक में राम कहते हैं –

स्त्री प्रणष्टेति कारुण्यादाश्रितेत्यानृशंस्यतः।
पत्नी नष्टेति शोकेन प्रियेति मदनेन च॥[v]

राम मर्यादा और पूर्ण मानवता के प्रतीक हैं। सीता के प्रति उनका शोक चतुर्मुखी है। वे सीता में एक स्त्री, आश्रिता, पत्नी और प्रिया इन सभी रूपों का साक्षात्कार करते हैं। स्त्री के नष्ट होने से उनके मन में करुणा, आश्रिता के नष्ट होने से दया, पत्नी के नष्ट होने से शोक तथा प्रियतमा के नष्ट होने से काम आदि अनेक भाव उनके मन को उद्वेलित करते हैं। प्रेम कभी याचना नहीं करता, अन्याय के सामने वह कभी झुकता नहीं। भारतीय ललना अपने प्रियतम के कष्ट में वन, वन भटक सकती है, कष्ट के पर्वतों का सामना कर सकती है किन्तु सम्पदा कि क्षणिक लालसा में वह किसी परपुरुष के सम्मुख आत्मसमर्पण नहीं कर सकती। रावण के द्वारा प्रार्थित सीता उसे बायें पैर से भी छूना स्वीकार नहीं करती–

चरणेनाऽपि सव्येन न स्पृशेयं निशाचरम्।
रावणं किं पुनरहं कामयेयं विगर्हितम्।।[vi]

हनूमान् के प्रति राम की उक्ति भी प्रेम की विशालता, उदात्तता और निःस्वार्थता का प्रतीक है। प्रत्येक उपकृत व्यक्ति यह चाहता है कि कभी अवसर मिले और मैं भी मेरे साथ उपकार करने वाले के काम आऊँ। उपकृत की यह समीहा निश्चय ही उपकार करने वाले के लिये विपत्ति की कामना करती है। राम हनूमान् से कहते हैं कि हे हनूमान्! तुमने मेरा जो उपकार किया है, वह मुझ में ही जीर्ण हो जाय। प्रत्युपकारी मनुष्य उपकारी के लिये विपत्ति की ही कामना करता है। कभी ऐसा समय न आये कि तुम्हें मेरी जरूरत पडे-

मय्येव जीर्णतां यातु यत्त्वयोपकृतं हरे!
नरः प्रत्युपकारार्थी विपत्तिमभिकाङ्क्षति॥[vii]

रामायण में पिता दशरथ के प्रति राम का अनन्य प्रेम वर्णित है। परवर्ती साहित्यकारों ने भी उसे स्थान दिया है। महाकवि भास माता और पुत्र उदात्त प्रेम का निरूपण करते हैं। जब उनसे यह कहा जाता है कि कैकेयी ने आपको वन भेज कर बहुत बडा अकार्य किया है। इस पर राम कहते हैं–

यस्याः शक्रसमो भर्ता मया पुत्रवती च या।
फले कस्मिन् स्पृहा तस्या येनाऽकार्यं करिष्यति॥
इन्द्र के समान पराक्रमी जिसका पति है तथा मुझ जैसा जिसका पुत्र है, उसे और क्या पाने को रह जाता है, जो वह कोई अकार्य करेगी। कैकेयी के द्वारा वन भेजा जाना उन्हें कष्टकर नहीं लगता। भास के स्वप्नवासवदत्तम् में चर्चित उदयन और वासवदत्ता का प्रणय रोमांचित कर देने वाला है। उदयन का विरह- वर्णन करता हुआ ब्रह्मचारी कहता है–

नैवेदानीं तादृशश्चक्रवाका
नैवाऽप्यन्ये स्त्रीविशेषैर्वियुक्ता:।
धन्या सा स्त्री यां तथा वेत्ति भर्ता
भर्तुः स्नेहात् सा हि दग्धाऽप्यदग्धा॥

भवभूति राम के स्वरूप का साक्षात्कार करने वाले कवियों में अद्वितीय हैं। वे राम की भावनाऒं, उनके राष्ट्र्प्रेम, सीता के प्रति उनके अनुराग से पूर्णतः परिचित हैं। राष्ट्र संसार के सभी सम्बन्धॊं से बडा है। “माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः “कह कर वैदिक ऋषियों ने भी इस तथ्य का उल्लेख किया है। भवभूति के राम राष्ट्र प्रेम में अपना सर्वस्व अर्पित करने के लिये सहर्ष तत्पर हैं-

स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि।
आराधनाय लोकस्य मुञ्चतो नास्ति मे व्यथा॥

सीता पर राम का गाढ अनुराग आज भी भारतीय संस्कृति में दाम्पत्य प्रेम का उदाहरण माना जाता है । राम उन्हें अपनी आत्मा, दूसरा हृदय नेत्रों की ज्योति आदि कह कर तो सम्बोधित करते ही हैं, उन्हें अपने गात्रो में अमृत की वृष्टि करने वाली भी मानते हैं। राष्ट्र के आराधन के लिये जानकी के परित्याग का शोक उनके लिये “पुटपाकप्रतीकाश” है–

अनिर्भिन्नो गभीरत्वादन्तर्भूतघनव्यथः।
पुटपाकप्रतीकाशो रामस्य कारुणो रसः [viii]

पुटपाक (रसायन बनाने की भट्ठी) हृदय की उस अन्तर्व्यथा को व्यक्त करता है जो गहरा होने के कारन खुल नहीं सकता, जिसे सब के सामने व्यक्त नहीं किया जा सकता किन्तु उसे अन्दर गम्भीर ज्वालायें और सघन ताप जलाता रहता है। राम सीता के प्रणय की ज्वाला में तपते रहते हैं। उत्तररामचरित के तीसरे अंक में राम की विरह वेदना फूट पडी है। भवभूति ने उस पीडा की मनोवैज्ञानिकता को समझा और उसका वर्णन किया। प्रेम में सर्वदा सहजता और सरलता ही नहीं मिलती, उसमें प्रेमी हृदयों को तपना भी पडता है। उस ताप को सहने में असमर्थ व्यक्ति प्रेम की पराकाष्ठा को प्राप्त नहीं कर सकता। भवभूति खुले शब्दों में घोषणा करते हैं कि जब तालाब वर्षा के जल से पूरा भर जाता है तो उसके ऊपर से बह रहे जल को बहा देना ही उसका उपचार होता है, इसी तरह प्रेमी हृदय का शोक और दुःख प्रलाप से ही शान्ति पाता है [ix]।

राम का प्रणय कष्ट उत्तररामचरित में पग पग पर छलका है। भवभूति ने उसे प्रभावशाली बनाने के लिये अप्रस्तुत विधानों का उपयोग किया है। प्रेम की पीड से हृदय फटने लगता है, देह के बन्ध ध्वस्त होने लगते हैं, संसार शून्य सा दिखने लगता है, तडपता हुआ हृदय अन्धकार में डूबने लगता है। उत्तररामचरित में राम का सीता के प्रति वियोग करुण का रूप ले लेता है, शोकाग्नि उनके हृदय को भूसे में लगी आग की तरह जलाता है-
चिरं ध्यात्वा ध्यात्वा निहित इव निर्माय पुरतः
प्रवासेऽप्याश्वासं न खलु न करोति प्रियजनः।
जगज्जीर्णारण्यं भवति च विकल्पव्युपरमे
कुकूलानां राशौ तदनु हृदयं पच्यत इव॥[x]

[i] प्रेमा ना प्रियता हार्दं प्रेम स्नेहः , अमर. १.७.२७
[ii] भावप्रकाश, ४, पृ. ७८
[iii] उज्ज्वलनीलमणि, पृ. ४१८
[iv] रामायण -६.१०१.१४
[v] रामायण -५.१५.५०
[vi] रामायण -५.२६.८
[vii] रामायण से कुवलयानन्द में उद्धृत
[viii] उत्तररामचरित, ३.१
[ix] पूरोत्पीडे तडागस्य परीवाहः प्रतिक्रिया। शोकक्षोभे च हृदयं प्रलापैरेव धार्यते ॥ उत्तररामचरित, ३.२९
[x] उत्तररामचरित,६.३८

क्रमशः….

About the author

प्रो. रमाकान्त पाण्डेय

काव्य, काव्यशास्त्र, नाट्यशास्त्र आदि क्षेत्रों में अनुसन्धान और अध्यापन के लिये विख्यात प्रो. रमाकान्त पाण्डेय की शिक्षा सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी  से सम्पन्न हुई। उन्होंने डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर से पीएच.डी. तथा डी.लिट् की उपाधि प्राप्त की प्रो. पाण्डेय ने अब तक 84 ग्रन्थों का प्रकाशन तथा सम्पादन किया है।  मध्यप्रदेश संस्कृत अकादमी, महाराणा मेवाड़ फाउण्डेशन, उदयपुर आदि विभिन्न संस्थाओं से उन्हें उनके संस्कृत सेवा के लिए सम्मानित किया जा चुका है। प्रो. पाण्डेय को अखिल भारतीय संस्कृत साहित्य सम्मेलन द्वारा भी पुरस्कृत किया गया है।

प्रो. पाण्डेय संस्कृत प्रगत अध्ययन केन्द्र, पूना विश्वविद्यालय, संस्कृत विभाग, डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय आदि संस्थाओं में विभिन्न पदों पर कार्य कर चुके हैं। उन्होंने केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के जयपुर परिसर में विभिन्न दायित्वों का निर्वहण किया तथा मुक्त स्वाध्याय पीठ के निदेशक के रूप में भी कार्य किया। प्रो. पाण्डेय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के संस्कृत परामर्श मण्डल के सदस्य हैं तथा वर्तमान में केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, भोपाल परिसर के निदेशक पद पर कार्यरत हैं।

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