दिनेश सूत्रधार II
पुस्तक- अप्राप्य क्षितिज (काव्य)
लेखक- सुनील पंड्या
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर
‘मिलना भी कृतज्ञ सृजन है’
राजस्थान साहित्य अकादमी के सहयोग से बोधि प्रकाशन द्वारा छपा ‘अप्राप्य क्षितिज’ श्री सुनील पंड्या का प्रथम काव्य संग्रह है। जो कईं मायनों में कविता की नई जमीन तलाशता है।
संग्रह में प्रेम के कोमल वितान के साथ रिश्तों की समसामायिक समझ स्वयं को पूर्ण लालित्य में उघाड़ती प्रतीत होती है। जीवनगत अनुभवों की महीन तहें खोलना एक प्रकार से संग्रह का प्रतिपाद्य है।
कविता जीवन की बुनियादी जरूरत है। ठीक है कि उसका प्रस्फुटन कविता के स्थूल अर्थ में ही हर क्षण न होकर स्मृतियों के सामूहिक कोलाज के रूप में भी कभी-कभी साकार हो उठता है। भावों के सन्नाटे में रीसता टपकता मौन भी कभी कभार कविता पाठ की भांति बज उठता है। किंतु उसका महत्व तो रहता ही है।
सुनील जी की कविताएं भी उपरोक्त कथन को चरितार्थ करती है।
बोलते शब्दों की मौन मार और मौन की शाब्दिक हुंकार दोनों ही इन कविताओं का जैसे मूल स्वभाव है। तप्त अयस पर हथौड़े की पड़ती चोट की तरह कविता के शब्द अनुभवों का अयस गढ़ते हैं।
शुक्ल जी के अनुसार’ कविता समष्टि की जटिलताओं के साथ स्वयं को जटिल बनाती है’ तो मात्र इसलिए कि समष्टि की जटिल- ता को खोल सकें। जीवनगत ग्रंथियों का कविताई पकड़ से खुल जाना और खोला जाना, दोनों ही यदि शुक्ल जी के विचार में ‘कविता’ है तो इसका सम्यक निर्वहन सुनील जी की कविताएं करती है।
संग्रह की कविताओं में रिश्तों को लेकर एक स्पष्ट समझ मिलती है।दौड़ती भागती जीवनचर्या के मध्य रिश्तें किस प्रकार ठोकरें खा रहे हैं। अर्थ धुंधलें हो रहे हैं। पारस्परिक गर्माहट जो रिश्तों को नर्म- मर्म- धर्ममय रखती है, वह अब एक चुकी हुई अवधारणा बनती जा रही है।
जो प्रेम प्रत्येक रिश्ते की प्रासंगिकता का स्रोत होता है वही प्रेम स्वयं स्वार्थ के दलदल में धंसकर अप्रासंगिकता की ओर बढ़ रहा है। इसीलिए कवि को रिश्तें अब ‘राहु’ की शक्ल में गति करते दिखाई देते हैं।
‘कब कोई रिश्ता
राहु की तरह गति करके
जीवन का गणित बिगाड़ देता है’
उनकी ‘स्पर्श जिंदा है’ कविता केवल टटका मुहावरा नहीं है। अनुभूति के टटकेपन का जीवंत प्रमाण भी है। कविता बताती है कि स्पर्श का स्पर्श की तरह आना प्रत्येक समस्या का समाधान हो सकता है। वैश्विक स्तर पर सभ्यतायें भले ही ‘ग्लोबल विलेज’ की अवधारणा विकसित कर रही हो किंतु ‘विलेज’ की तमाम पुरानी विशेषताएं इससे गायब है। विलेज की स्नेह युक्त माटी गायब है। क्योंकि ‘ग्लोबल विलेज’ मनुष्य केंद्रित न होकर बाजार केंद्रित अवधारणा है। जिसमें नैतिकता का कोई तकाजा नहीं है।
वस्तुतः दुनिया भर में फैली समस्याओं का एकमात्र कारण भी तो यही अनैतिक और बाजारवादी शिकंजा ही है जिसमें वस्तुओं को संवेदना से विलग करके मात्र वस्तु समझा जाता है। किंतु रुकिए, कविता इसका प्रत्याख्यान करती है-
‘बात सिर्फ काम की नहीं
वरन् इस बहाने स्पर्श जिंदा रहता है
प्रेम जिंदा रहता है।’
प्रेम पर कविता लिखना आज प्रेम करने से अधिक सरल हो चुका है। भावनाओं के सतही स्वरूप को प्रेम की गहन राशि में खटाकर अनगिनत कविताएं लिखी जा रही है किंतु ऐसी अभी कविताएं अनुभूति की न्यूनता के चलते अधिक टिकाऊ नहीं हो पाती। जबकि सुनील जी की कविता इसका विलोम स्थापित करती है। प्रेम को प्रेमिका की केश- लटों के मध्य से इस भांति पकड़ती है जैसे चिमटी से नगीना।
‘जहां तुम्हारी लट से होते हुए
मेरी नजर
तुमसे मिली थी’
कवि के लिए जीवन ईश्वर का शाप पता नहीं क्यों है जबकि उनकी कविताओं में जीवन के उज्ज्वल आयाम अनेक बार जगमगा उठते हैं। कही पर परिस्थितियों से संघर्ष करता जीवन स्वेद बूंदों में दमक उठता है तो कहीं पर स्वयं से संघर्षरत मन चाबुक खाकर भी नहीं कराहता। खुद को गतिशील रखने के लिए कितना जबरदस्त बिंब गढ़ा है-
‘मैंने नंगी पीठ पर
चाबुक लेकर
खुद को हाँका है’
और दूसरा ये बिंब जिसमें जीवन सहज न होकर संघर्ष के बल पर आगे बढ़ता है –
‘जिंदगी अपनी ही फूंकनी को तरह तरह से
फूंक फूंक कर धुआं करती
लकड़ियों में नई चिंगारी भर देती है।’
कहीं कहीं पर कोई एक पंक्ति इतनी सुंदर आभा प्रस्तुत करती है कि सम्पूर्ण कविता उसमें विलीन हो जाती है। एक उदाहरण-
‘मुंह के निवाले
सुंदर नहीं सार्थक होते हैं।’
भूख और भोजन के रिश्ते पर ऐसी प्रभावी पंक्ति स्वयं को यथार्थवादी कहने वाले कवि ने भी नहीं लिखी होगी।
प्रेम और पीड़ा का संकुल रचती कुछ अन्य पंक्तियां –
‘मेरी हंसी में
मेरी आंखों की नमी
कभी शामिल नहीं होती’
‘प्रेम में पड़कर
उपसंहार नहीं लिखे जाते।’
सुनील जी का कवि कविता की जिस राह पर चला है उसमें किसान- मजदूर, घर- परिवार और प्रेम- पीड़ा, सभी तरह के पड़ाव है जिन्हें कवि जीता है। आगे भी यात्रा अनवरत जारी रहेगी ऐसी सुभेच्छा है।
बस कुछ दोहरावों से बचना होगा। कुछ खांचों को मिटाना होगा।