कविता काव्य कौमुदी

मन पलाश

प्रीति शर्मा II

पीत कुसुम के कुण्डल धारे, अल्हड़ कोंपल शरमाई।
पीली सरसों पायल पहने, लगती नर्तित अमराई।।

छलक रही मन की रस गागर, उमग उमग मधु बरसाए।।
लज्जा का अवगुंठन सरका, मन पलाश भी शरमाए।।
नव कोंपल से भींग अधर पर, अंतस किसलय महकाए।
नीले नभ के नव वितान ने, आम्रमंजरी बहकाए।।
व्यजन डुलाती मगन वसुधा, पर्ण पत्र पर तरुणाई।
पीली सरसों पायल पहने, लगती नर्तित अमराई।।1।।

मन द्वारे की साँकल खोली,मंद- मंद मुस्कान खिली।
उर पाहुना थाप दे दस्तक, चंद्र वसंती प्रीति मिली।।
गीत वसंती छंद हो रहे, पुरवा में गुँथ- गुँथ गाए।
हृदय शाख पर हौले -हौले, उतरे प्रियतम घर आए।।
महक रहा वातायन सारा, सुबह अभी तक अलसाई ।
पीली सरसों पायल पहने, लगती नर्तित अमराई।।2।।

रक्तिम पल्लव हुए वसंती, शिशिर हुआ है बैरागी।
अभिसारी गीतों से गुंजित, प्रणय आस फिर से जागी।।
पीत कली लावण्य सुनहरा, मधुरस की बरसात हुई।
गदराई गेहूँ की बाली, महुआ झरता महक नई।।
पुष्पाधर को यौवन देती यह ,ऋतु वसंत की फिर आई।
पीली सरसों पायल पहने, लगती नर्तित अमराई।।3।।

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प्रीति शर्मा

प्रीति शर्मा 'प्रीत'
रीवा, मध्य प्रदेश

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