प्रताप नारायण सिंह II
महादेवी के काव्य में प्रतीक योजना पर दृष्टि डालने से पहले हम बिम्ब और प्रतीक के अंतर को समझ लेते हैं| जब भावावेग प्रेरित कल्पना मन में एक सहज स्फूर्त तात्कालिक चित्र उपस्थित करती है तो वह ‘बिम्ब’ होता है। मूर्तता बिम्ब का गुण है पर वह अनेकार्थक, अस्पष्ट हो सकता है। यह बिम्ब जब बार- बार उसी – उसी अर्थ में दुहराया जाता है और लगभग रूढ़ एकार्थक हो जाता है तब वही प्रतीक कहलाता है। उदाहरण स्वरुप : कभी पहली बार किसी कवि ने अपनी नायिका के सुन्दर मुख का चित्र उपस्थित करने के लिए ‘चाँद’ का प्रयोग किया होगा| वह बिम्ब इतना सटीक और सुन्दर जान पड़ा कि धीरे धीरे वह सुन्दरता का प्रतीक बन गया| इसी तरह रात, भोर, दीपक इत्यादि दुःख, आशा और जीवन के प्रतीक बनते गए| कभी ये पहली बार बिम्ब के रूप में आए होंगे|
छायावाद के युग में बिम्बों और प्रतीकों की भरमार मिलती है| आधुनिक काव्य के लिए वह युग एक खुले विस्तृत आकाश के जैसा था| पूरा वैश्विक परिवेश करवट बदल रहा था| क्रान्ति, नवजागरण, समाज सुधार इत्यादि सामजिक और राजनीतिक घटनाएँ भी नवीनता से अनुप्राणित थीं|
छायावादी कवियों में यदि प्रसाद और महादेवी को तुलनात्मक रूप से देखें तो प्रसाद बिम्बों के प्रवर्तक थे तो महादेवी प्रतीकों की उद्भाविका|
अब देखते हैं महादेवी के प्रतीक विधान को –
डॉ० कुमार विमल ने ‘छायावाद का सौंदर्यशास्त्रीय अध्ययन’ में महादेवी वर्मा की कविताओं में इन चार प्रकार के प्रतीकों की पहचान की है –
१. वेद और उपनिषद के प्राचीन प्रतीक,
२. संत साहित्य के प्रतीक
३. छायावाद के अतिरिचित प्रतीक, और
४. अप्रस्तुतों के आवर्तक प्रयोग से बनाए गए (स्वनिर्मित) प्रतीक।
किंतु, डॉ0 मनोरमा शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘महादेवी के काव्य में लालित्य विधान’ में महादेवी वर्मा की कविताओं में कम से कम बारह प्रकार के प्रतीकों की उपस्थिति बताई है। डॉ0 मनोरमा शर्मा ने महादेवी के काव्य में प्राप्त विभिन्न प्रकार के प्रतीकों को अधिक विस्तार में देखा समझा है|
महादेवी द्वारा प्रयुक्त कुछ प्रमुख प्रतीक योजनाओं को देखते हैं –
प्रकृति से उठाए गए प्रतीक –
अन्य सभी छायावादी कवियों के समान, महादेवी वर्मा प्रकृति की अनन्य प्रेमी हैं। प्रकृति में वह उस विराट सत्ता के दर्शन करती हैं और उसकी ही छवि चहुँ ओर निहारती हैं। देखिए –
चुभते ही तेरा अरुण बान!
बहते कन कन से फूट फूट, मधु के निर्झर से सजल गान।
इन कनक रश्मियों में अथाह, लेता हिलोर तम-सिन्धु जाग;
बुदबुद से बह चलते अपार, उसमें विहगों के मधुर राग;
बनती प्रवाल का मृदुल कूल, जो क्षितिज-रे ख थी कुहर- म्लान।
यहाँ ‘अरूण बान’ प्रियतम की मधुर चितवन का प्रतीक है। यह चितवन किस प्रकार प्रेयसि के मन में आनंद का संचार कर देती है, यह देखते ही बनता है। यहाँ कनक रश्मियों’ में आशा का प्रतिनिधित्व होता है तो ‘तम-सिंधु’ घोर निराशा का द्योतक है, ‘विहगों के मधुर राग’ प्रेमिका के मन में उठने वाले मधुर भाव हैं। महादेवी की कविताओं में इनके उद्धरण अनायास मिल जाते हैं।
आध्यात्मिक प्रतीक
महादेवी अपने काव्य को सौंदर्य – सज्जित करने के लिए प्रतीकों का चयन करते समय भी अध्यात्म का सहारा लिया है। कहना न होगा कि इनके आध्यात्मिक प्रतीकों में रहस्यात्मकता का पुट भी अनायास आ जाता है। यह उदाहरण देखिए –
‘करूणामय को भाता है, तम के परदों में आना|
हे नभ की दीपावलियों!, तुम पल भर को बुझ जाना!’
यहां परम पुरुष के आगमन का सहारा लेकर कवयित्री ने आध्यात्मिक प्रतीक की रचना की। अज्ञेय प्रिय की रहस्यात्मकता के लिए ‘तम और ‘दीपावलियों ‘ जैसे प्रतीकों का प्रयोग सार्थक हुआ है। महादेवी जहां स्वयं को उस अज्ञेय, असीम प्रियतम की प्रेमिका मानती है, वहां वे रहस्यात्मक हो जाती हैं’, और तब वे इसी प्रकार के प्रतीकों का प्रयोग करती हैं।
साधनात्मक प्रतीक
महादेवी का संपूर्ण जीवन एक सतत साधना के रूप में उनके काव्य पटल पर चित्रित हुआ है। उन्होंने इस क्षेत्र से प्रतीक उठाकर अपनी विशिष्ट अनुभूतियों को अभिव्यक्ति दी है। उन्होंने ऐसे प्रतीकों का अत्यंत सुंदर प्रयोग किया है जिनसे साधना तथा श्रद्धा को अभिव्यक्ति मिली है। इस संदर्भ में अनेक उदाहरण उनके गीतों से दिए जा सकते हैं। देखिए –
‘यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो!
रजत शंख – घड़ियाल स्वर्ण वंशी- वीणा- स्वर
गए आरती वेला को शत- शत लय से भर
जब था कंठों का मेला
विहँसे उपल, तिमिर था खेला
अब मंदिर में इष्ट अकेला
इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो!’
इस उदाहरण में अनेक साधनात्मक प्रतीकों का प्रयोग हुआ है। यहां ‘मंदिर’ मानव शरीर का, ‘दीप’ उसकी आत्मा का, ‘शंख’, ‘घड़ियाल आदि मनुष्य की विभिन्न भावनाओं के और अजिर अंतर्मन का प्रतीक है। ज्ञातव्य है कि इस उद्धरण में प्रयुक्त ‘दीपक’ महादेवी का सबसे अधिक प्रिय प्रतीक है, जिसका पुनः-पुनः प्रयोग उनकी कविताओं में हुआ है
परम्परागत प्रतीक
महादेवी ने अपनी कविताओं में परंपरागत और सांस्कृतिक प्रतीकों का भी खूब प्रयोग किया है और उन्हें नया तेवर, नयी दिशा देने का प्रयत्न किया है। ‘कमल’ एक ऐसा ही प्रतीक है। यह उनका एक सर्वाधिक प्रिय प्रतीक है और इसके प्रयोग के भी उदाहरण उनकी कविताओं में मिलते हैं। इस प्रकार के उद्धरणों में कवयित्री की लोककल्पना और व्यक्ति कल्पना दोनों का मणि- कांचन संयोग देखने को मिलता है। परंपरागत, सांस्कृतिक प्रतीक का यह उदाहरण देखिए-
हुई उसमें इच्छा साकार
उगल जिसने तिनरंगे तार
बुन लिया अपना ही संसार।
यहां ‘तिनरंगे तार’ तीन गुणों (सत, रज और तम) का प्रतीक है।
सौन्दर्य परक प्रतीक
महादेवी वर्मा सौंदर्य की उद्भाविका हैं। उन्होंने सौंदर्य को अपने काव्य में प्रधानता दी है और सर्वत्र उस चिर सौंदर्य के दर्शन किए हैं। प्रकृति के नारी रूप का भी अत्यधिक प्रयोग उनकी कविताओं में मिलता है। यह उदाहरण देखिए –
‘रजनी के श्याम कपोलों ।
पर ढरकीले श्रम के कन।’
यहां रात रूपी स्त्री के सांवले गालों (धुंधला आकाश) पर ‘श्रम के कन’ वस्तुतः तारों का प्रतीक है। एक और उदाहरण देखिए –
‘मिल जाता काले अंजन में
संध्या की आंखों का राग।’
यहां ‘अंजन’ तो अंधेरे का प्रतीक है,
जबकि ‘संध्या की आंखों का राग’ का प्रयोग कवयित्री ने सांझ की लालिमा के लिए किया है।
वेदना प्रधान प्रतीक
महादेवी वर्मा की कविता का मूल स्वर वेदना होने के कारण उसमें वेदना प्रधान प्रतीकों की कोई कमी नहीं है। अपनी वेदना को व्यक्त करने के लिए वह विभिन्न प्रतीकों को माध्यम बनाती हैं।
कभी वह कहती हैं – ‘विरह का जलजात जीवन’ तो कभी वह स्वयं को ‘नीर भरी दुःख की बदली’ बताती हैं।
उनकी वेदना जब व्यष्टि की परिधि से निकल कर समष्टि को छूती है तो वह कहती हैं – ‘मेरे गीले पलक छुओ मत/ मुरझाई कलियाँ देखो।’
यहां ‘मुरझाई कलियाँ’ उन शिशुओं का प्रतीक हैं जो पर्याप्त पोषण के अभाव में म्लान हो जाते हैं।
भावनात्मक प्रतीक
महादेवी की कविताओं में विभिन्न भावनाओं का प्रत्यक्षीकरण अत्यंत सुंदर ढंग से हुआ है। भावनात्मक सौंदर्य के लिए कवयित्री भावनात्मक प्रतीकों का प्रयोग करती हैं। गीत की विशेषता यही होती है कि उसमें किसी एक अनुभूति को लेकर ही चला जाता है। यही गीत के सौंदर्य और उसकी सफलता का रहस्य होता है और यह खुला रहस्य है कि महादेवी एक सफलतम गीति-लेखिका हैं। भावनात्मक प्रतीक के उदाहरण स्वरूप ये पंक्तियां देखिए –
सब बुझे दीपक जला लूं!
घिर रहा तम आज दीपक
रागिनी अपनी जगा लूं।’
यहाँ कवयित्री ने ‘दीपक’ को आत्मा, प्राण का प्रतीक बनाकर उसे जगाना चाहा है, अर्थात् वह प्रिय मिलन के लिए प्राणों की जड़ता को तोड़कर ‘तम’ अर्थात अज्ञानता के अंधकार से बाहर आना चाहती हैं, जिससे कि प्रिय मिलन का मार्ग प्रशस्त हो सके।
आत्मचेतना सम्बन्धी प्रतीक
छायावादी कवियों की एक. सामान्य विशेषता यह रही कि उन्होंने प्रकृति के अंदर एक चेतन सत्ता की उपस्थिति का अभिज्ञान किया। महादेवी तो इस क्षेत्र में अधिक मुखर हैं। जैसे प्रतीकों में शलभ, वीणा, तार, सरिता आदि प्रमुख हैं। एक उदाहरण देखिए –
‘सिंधु को क्या परिचय दें देव!
क्षुद्र हैं मेरे बुद् बुद् प्राण/
तुम्हीं में सृष्टि, तुम्हीं में नाश।’
यहां ‘सिंधु’ प्रतीक है उस असीम सत्ता का। एक उदाहरण और देखिए :
‘झटक जाता था पागल वात/
धूलि में तुहिन कणों के हार।’
यहां ‘वात’ और ‘तुहिन कणों’ का अभिनव प्रयोग द्रष्टव्य है,
जिनका अभिप्राय क्रमशः युवक और आंसुओं से है।
देखने योग्य है कि किस प्रकार प्रेम में उन्मत्त युवक आँसू बहाता है।
महादेवी के द्वारा प्रयुक्त किए गए प्रतीकों को हम चार वर्गों में बाँट सकते हैं –
१. मूर्त के लिए मूर्त प्रतीक,
२. अमूर्त के लिए अमूर्त प्रतीक,
३. मूर्त के लिए अमूर्त प्रतीक
४. अमूर्त के लिए मूर्त प्रतीक।
१. मूर्त के लिए मूर्त प्रतीक
इस वर्ग में मूर्त प्रस्तुत विषय के लिए प्रयुक्त मूर्त प्रतीक आते हैं। जैसे, दीपक का प्रतीक रूप में प्रयोग सामान्यतया साधनाशील मन के लिए हुआ है, किंतु इन पंक्तियों में इस मूर्त प्रतीक का प्रयोग मानव शिशु के लिए किया गया है, जो स्वयं मूर्त प्रस्तुत विषय है –
‘तेरे असीम आंगन की/ देखू जगमग दीवाली,/
या इस निर्धन कोने में/ बुझते दीपक को देखू।।’
एक और उदाहरण देखिए –
‘समीरण के पंखों में गूँथ / लुटा डाला सौरभ का भार,/
दिया दुलका मानस- मकरंद/ मधुर अपनी स्मृति का उपहार।’
यहां मकरंद मूर्त प्रतीक है, जिसका प्रयोग आँसू (मूर्त) के लिए किया गया है। इसी प्रकार – ‘छू अरूण का किरण-चामर/ बुझ गए नभ-दीप निर्भर/ में मूर्त प्रतीक ‘नभ दीप’ का प्रयोग मूर्त तारों के लिए किया गया है। इसी प्रकार ‘कनक-रजत के मधु प्याले’ का प्रयोग सूर्य-चन्द्रमा के लिए, ‘नभ के नयन ‘ का प्रयोग तारों के लिए किया गया है। इसी प्रकार – ‘स्मित ले प्रभात आता नित/ दीपक दे संध्या जाती। दिन ढलता सोना, बरसा) निशि मोती दे मुस्काती’ को लीजिए। इन पंक्तियों में मूर्त ‘स्मित’, ‘दीपक’, ‘सोना’ और ‘मोती’ का प्रयोग क्रमशः किरण, चंद्रमा, सुनहरा आकाश और ओस की बूंदों के लिए हुआ है।
२. अमूर्त के लिए अमूर्त प्रतीक
मूर्त विषय के लिए मूर्त प्रतीक की योजना इतनी दुष्कर नहीं होती, जितनी कि अमूर्त के लिए अमूर्त प्रतीक की होती है। इस प्रकार का प्रतीक विधान कम ही देखने में आता है। महादेवी ने भी अमूर्त प्रतीकों का जो प्रयोग किया है उनमें पुनरावृत्ति अधिक हुई है। ये दो उदाहरण देखिए, जिनमें ‘स्वप्न’ का प्रयोग प्रतीक के रूप में किया गया है –
अपने जर्जर अंचल में/ भर कर सपनों की माया,
और
‘उड़ा तू छंद बरसाता,/ चला मन स्वप्न बिखराता।’
यहां 1 में ‘स्वप्नों’ का प्रयोग विगत की अनुभूतियों के लिए किया गया है। जबकि 2 में ‘स्वप्न’ से अभिप्राय प्रियतम की छवि से उदभूत मधुर भाव से है।
इसी प्रकार अमूर्त ‘सौरभ ‘ का प्रयोग महादेवी ने अमूर्त भावों के लिए किया है, इस प्रतीक की भी उनकी कविताओं में पुनरावृत्ति हुई है। दो उदाहरण देखिए –
‘यह सांसें गिनते गिनते/ नभ की पलकें झंप जाती,
मेरे विरक्त अंचल में/ सौरभ समीर भर जाती ,
और
‘मैं पलकों में पाल रही हूँ, यह सपना सुकुमार किसी का!/
लाया झंझा दूत सुरभिमय/ साँसों का उपहार किसी का।’
यहां 1 में सौरभ का प्रयोग प्रियतम से मिलन की स्मृतियों के लिए किया गया है, जबकि २ में ‘सुरभिमय’ सांस प्रियतम के अनुकूल भावों का बोध कराती है।
३. मूर्त के लिए अमूर्त प्रतीक
मूर्त अथवा स्थूल प्रतीकों का सहारा लेकर अमूर्त अथवा सूक्ष्म को स्पष्ट करना सामान्य रूढ़ि है। किंतु अमूर्त अथवा सूक्ष्म प्रतीक का प्रयोग करके उसके किसी मूर्त अथवा स्थूल को स्पष्ट करने का प्रयास करना धारा के विपरीत बहने का प्रयत्न करने के समान है। यह अपने आप में न केवल असामान्य है, अपितु दुष्कर भी है। फिर भी, महादेवी ने इस प्रकार का प्रतीक-विधान अपनी कविताओं में दक्षता से किया है। यह उदाहरण देखिए –
‘किस मलय सुरभित अंक रहा/ आया विदेशी गंधवह?’
यहां ‘गंधवह’ (वायु) का प्रयोग महादेवी ने हरजाई प्रियतम के लिए किया है, जो किसी पराई स्त्री के साथ विहार करने के बाद मासूम प्रेयसी को बहकाने आया है। एक और उदाहरण देखिए –
‘कलियों की घन जाली में/ छिपती देखू लतिकाएँ
या दुर्दिन के हाथों में/ लज्जा की करूणा देखूँ
यहां अमूर्त ‘लज्जा’ का प्रतीकात्मक प्रयोग अबला स्त्री के लिए किया गया है, जिसके प्रति कवयित्री अपनी सहानुभूति प्रकट करती है।
४ . अमूर्त के लिए मूर्त का प्रयोग
अमूर्त अथवा सूक्ष्म के लिए मूर्त अथवा स्थूल प्रतीकों का प्रयोग सामान्य बात है। अनेकानेक कवियों ने अनेकानेक बार इनका प्रयोग किया है। महादेवी वर्मा की कविताओं में भी ऐसे प्रयोगों की भरमार है। उन्होंने तो एक ही मूर्त प्रतीक का प्रयोग अलग-अलग संदर्भ में अलग-अलग अमूर्त विषयों अथवा भावों के लिए किया है। कुछ उदाहरण देखिए –
‘मधुर मधुर मेरे दीपक जल!’
यहाँ ‘दीपक’ का प्रयोग प्रतीक रूप में जीवन के लिए किया गया है,
‘शलभ मैं शापमय वर हूँ/किसी का दीपक निष्ठुर हूँ।’
यहाँ ‘दीप’ का प्रयोग वेदना के लिए किया गया है।
‘टूट गया वह दर्पण निमर्म!/उसमें हंस दी मेरी छाया।’
यहां मूर्त ‘दर्पण’ का प्रयोग माया के लिए किया गया है। जब तक माया का आवरण रहता है, आत्मा-परमात्मा का मिलन संभव नहीं होता, किंतु माया का दर्पण टूटते ही तादात्म्य की स्थिति बन जाती है।
इसी प्रकार
‘कण-कण में रच अभिनव बंधन/ क्षण-क्षण को कर भ्रममय उलझन,/
पथ में बिखरा शूल/ बुला जाते हो दूर अकेले।’
यहाँ ‘शूल’ प्रतीक है कष्टों, बाधाओं का।
‘इसमें उपजा यह नीरज सित,/ कोमल-कोमल लज्जित मीलित,/
सौरभ सी लेकर मधुर पीर!/ इसमें न पंक का चिह्न शेष,/
इसमें न ठहरता सलिल लेश,/ इसको न जगाती मधुपा भोर!’
इस उद्धरण में ‘पंक’ (कीचड़) कलुषता का, सलिल (जल) सांसारिक मोह का, और मधुप (भौंरा) लौकिक आकर्षण का प्रतीक है।